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________________ ६० | तीर्थकर महावीर लिए आमंत्रित करतीं। ऐसे अवसर पर भी वर्धमान आंख उठाकर देखते तक नहीं और अन्तर्मुख हो ध्यान में लीन हो जाते । गृहस्थों के साथ वे कोई संसर्ग नही रखते थे। ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर उत्तर नहीं देते। वर्धमान अबहुवादी थे, अर्थात् अल्पभाषी जीवन बिताते थे। किसी के पूछने पर भी वे प्रायः मौन रहते ।। वे शून्य खण्डहरों में ध्यान करते, तब कोई पूछता-अयमंतरंसि को अत्य? यहां भीतर कौन है? तब वे इतना ही उत्तर देते-अहमंसि ति भिक्खु-मैं भिक्ष हं।२ सहे न जा सके, ऐसे कटु व्यंग्यवचनों के सामने भी शान्तचित्त और मौन रहते । कोई गुणगान करता तो भी मौन और डण्डों से पीटता या केश खींचकर कष्ट देता, तो भी शान्त मोन । इस तरह वर्धमान निर्विकार, कषाय-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिंतन में समय बिताते ।' दृष्टियोग विहार करते चलते समय वर्धमान आगे की पुरुष-प्रमाण भूमि पर दृष्टि डालते हुए चलते । अगल-बगल या पीछे की ओर नहीं ताकते थे, केवल सामने के ही मार्ग पर दृष्टि रख सावधानी पूर्वक चलते । रास्ते में उनसे कोई बोलना चाहता, तो भी नहीं बोलते थे। उग्र तपश्चरण शीतकाल में श्रमण वर्धमान छाया में बैठकर ध्यान करते । गर्मी के दिनों में उत्कुटुक जैसे कठोर आसन लगा कर धूप में बैठकर ताप सहन करते ।५ शरीरनिर्वाह के लिये सूखे भात, मंथु और उड़द का आहार करते । एक बार आठ महीनों तक वर्धमान इन्हीं चीजों पर रहे। वर्धमान पन्द्रह-पन्द्रह दिन, महीने-महीने, छ:-छ: महीने तक जल नहीं पीते थे । उपवास में भी विहार करते । अन्न भी ठण्डा और वह भी तीन-तीन, चार-चार या पांच-पांच दिन के अन्तर से किया करते ।' चरम कोटि को अहिंसा एवं तितिक्षा भगवान ने पल-पल अहिंसा और अनुपम तितिक्षाभाव की आराधना की। ऐसी घटनाओं का उल्लेख मिलता है कि भिक्षा के लिये जाते समय रास्ते में कबूतर अनुपम तितिक्षामाव की आराधना का --आचारांग १७ १ पुट्ठो विणाभिमासिसु २ आचारांग हा२।१२ ३ वही ।२।११-१२ ४ वही १५ ५ वही ६।४५ ६ वही १६
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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