________________
साधना के महापय पर | ५६ खान-पान में बड़े संयमी थे ।' मानापमान में समभाव रखते हुए घर-घर भिक्षाचर्या करते। कभी दीनभाव नहीं दिखाते थे । रसों में उन्हें आसक्ति न थी और रसयुक्त पदार्थों की कभी आकांक्षा नहीं करते थे। भिक्षा में रूखा-सूखा, ठंडा, बहुत दिनों के पुराने उरद का, पुराने धान या यवादि नीरस धान्य का जो भी आहार मिलता, उसे वे शान्तभाव से और सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते । भिक्षा न मिलने पर भी वैसी शान्तमुद्रा और सन्तोष रखते । स्वादविजय उनका मुख्य लक्ष्य रहता। कई बार वे कोरे ओदन (चावल) मंथु और कुल्माष (बाकले) ही खाकर रहते।
शरीरव्युत्सर्ग तथा देहातीतभाव शरीर के प्रति वर्धमान की निरीहता बड़ी रोमांचकारी थी। रोग उत्पन्न होने पर भी वे औषधि-सेवन की इच्छा नहीं करते थे। जुलाब, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्तप्रक्षालन को वे जरूरत नहीं रखते थे। आराम के लिए पगचंपी नहीं कराते थे। आँखों में रजकण गिर जाता तो वह भी उन्हें विचलित नहीं करता। ऐसी परिस्थिति में भी वे आँख नहीं खुजलाते थे। शरीर में खाज चलती तो उसे भी वे जीतते थे। इस तरह उन्होंने अपूर्व मनःसंयम और देह-दमन की साधना की। देह-वासना से वे सर्वथा मुक्त थे।
निद्राविजय श्रमण वर्धमान ने कभी पूरी नींद नहीं ली। उन्हें जब नींद अधिक सताती, तब वे बाहर निकलकर शीत में मुहुर्तभर चंक्रमण कर निद्रा पर विजय पा लेते थे। वे अपने को हमेशा जागृत रखने की चेष्टा करते रहते । ध्यानयोगी महावीर रातदिन प्रत्येक क्षण जागृत रहते ।
मौन, ध्यान एवं अकषाय भाव उत्कुटक, गोदोहिका, वीरासन आदि अनेक आसनों द्वारा वर्धमान निर्विकल्प घ्यान किया करते। कितनी ही बार ऐसा होता कि जब वे गृहस्थों की बस्ती में ठहरते, तो रूपवती स्त्रियां उनके शरीर-सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उन्हें विषय-सेवन के
-आचारांगा४19
१ ओमोयरियं चापट अपुढे भगवं रोहिं । २ आचारांग ६।१।२० ३ वहीं ६।४४ ४ वहीं ६।१२० ५ वही हा२।५-६ । (बहिं चंकमिया मुहुत्तागं) ६ वही हा२।२१ ।