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________________ जीवन का प्रथमचरण | ११ भाव के वर्धमान के हाथ का प्रसाद पाकर धन्य-धन्य होकर जाता। आचार्यों की गणना के अनुसार प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान किया जाता था। इस हिसाब से वर्ष भर में कई अरब स्वर्ण-मुद्राओं की राशि जलधर की भांति बरसा कर जनता की गरीबी व दुखों को दूर करने का प्रयत्न वर्धमान ने किया। राजा नन्दीवर्धन ने स्थान-स्थान पर दानशालाएं व भोजनशालाएं खुलवाकर जनता-जनार्दन की सेवा में असंख्य स्वर्णमुद्राएं दान की। भवन से वन की ओर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, वर्धमान के हृदय में अभिनिष्क्रमण का संकल्प तीव्र से तीव्रतर होता गया। तभी परम्परानुसारी लोकान्तिक देवों ने उपस्थित होकर वर्धमान के दृढ़ संकल्प का हार्दिक अनुमोदन करते हुये कहा- "हे विश्वकल्याण के इच्छुक महामहिम ! आपकी जय हो ! हे क्षत्रियश्रेष्ठ ! आप शीघ्र ही धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये, जिससे समस्त जीवों को सुख एवं कल्याण की प्राप्ति हो।" दो वर्ष का समय पूर्ण होने पर अब नन्दीवर्धन भी वर्धमान के दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करने लगे। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी का दिन व चौथा प्रहर था।' सूर्य की किरणें पश्चिम की ओर जा रही थीं। तभी वर्धमान राजभवन से निकले । चन्द्रप्रभा नाम की पालकी में बैठकर ईशान दिशा में स्थित ज्ञातखण्ड नामक उद्यान की ओर चले। उनके पीछे हजारों नर-नारियों का भाव-विह्वल समूह था। असंख्य देव इस दृश्य को देखने धरा पर उतर रहे थे । धरती-आकाश एक हुआ जा रहा था। ऐसा लगता या, समता का संदेशवाहक आज धरती पर समता की वृष्टि किये जा रहा है। विशाल जुलूस ज्ञातखण्ड उद्यान में पहुंचा, अशोकवृक्ष के समीप रुका । वर्धमान पालकी से नीचे उतरे। शरीर पर सुसज्जित वस्त्रों एवं आभूपणों को उतार कर उन्होंने एक ओर रख दिया, मन से जब ममता हटी तो स्वर्ण एवं हीरों के आभूषण भी भार प्रतीत होने लगे। वर्धमान सचमुच भारमुक्त हो गये, ग्रन्थियों से १ उस दिन महावीर छठ्ठ-भक्त उपवास-अर्थात् बेले की तपस्या में थे । ई०पू० ५६६, २६ दिसम्बर, सोमवार।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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