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________________ ३२ | तीर्थंकर महावीर वहाँ भी सामान्य जन धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक दासता से पीड़ित था। छोटीछोटी बातों को लेकर गणराज्यों में भी युद्ध ठन जाते थे। राजाओं की तरह पनिक व्यापारी वर्ग भी पशुओं की भांति मनुष्यों को गुलाम बनाता था। दास-दासियों का लम्बा चौड़ा परिवार उनकी सेवा में स्वयं को समर्पित किये खड़ा रहता था। ___ इस प्रकार धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों की घुटन में मनुष्य की आत्मा कुण्ठित एव मूच्छित हो रही थी। सामाजिक विषमता और अमानुषिक यन्त्रणा मानव को सतत संत्रास एवं पीड़ा से व्याकुल किये हुये थी। भारत के पूर्वांचल की यह स्थिति न्यूनाधिक रूप में समग्र भारत को ही नहीं, किन्तु समग्र विश्व को अपनी लपेट में लिये हुए थी, ऐसा तत्कालीन इतिहासकारों का मत है। इन परिस्थितियों में भगवान महावीर का जन्म सम्पूर्ण मानवता के लिए वरदान था, तो स्वयं उनके लिये एक कठिन तपस्या, साधना और उत्कृष्टतम आत्मबल की अग्निपरीक्षा का प्रसंग भी था। गैशाली गणराज्य ईस्वी पूर्व सातवी-छठी शताब्दी में गंगा के उत्तरी तट पर लिच्छवी क्षत्रियों का एक विशाल, प्रतापी गणराज्य उन्नति के चरम शिखर पर पहुंच रहा था । उस लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी वैशाली। लिच्छवी सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। ये मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वंशज कहलाते थे। बौद्धधर्म के उदयकाल से पूर्व ये 'विदेह' नाम से पहचाने जाते थे। किन्तु बुद्धमहावीर युग में लिच्छवी नाम अधिक विश्रुत हो गया था, फिर भी इनका विदेह नाम साहित्य के पृष्ठों पर सदा चिरपरिचित रहा है । जैनाचार्यों द्वारा लिच्छवी गणतन्त्र के गणाध्यक्ष चेटक 'विदेहराज' के नाम से पुकारे गये हैं। चेटक की छोटी बहन त्रिशला विदेहदिन्ना' और स्वयं भगवान महावीर 'विदेहसुकुमाल' कहलाते थे। लिच्छिवियों के साथ ही मल्ल, बज्जी एवं ज्ञातृ आदि आठ कुलों के क्षत्रियों ने मिलकर एक संयुक्त गणराज्य की स्थापना की थी। इस गणराज्य की राजधानी वैशाली थी। वैशाली का वैभव उस युग में उन्नति के परम शिखर को छू रहा था। वहां की प्रजा को अत्यन्त धन-धान्य से सुखी, स्व-परचक्र से सुरक्षित एवं सद्गुणों से समृद्ध देखकर तथागत बुद्ध ने कहा था-"स्वर्ग के देव देखने हों तो वैशाली के पुरुषों को देख लो और देवियों का दर्शन करना हो तो वैशाली की महिलाओं को देखो।" सचमुच वैशाली उस युग में स्वर्ग के साथ स्पर्धा करने वाली वैभवशालिनी नगरी थी।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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