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________________ १८ | तीर्थकर महावीर रानी ने तैश में आकर कहा-"हाय राम ! चूल्हे में जाय ऐसी मर्यादा ! मालिक मुंह ताकता रहे और चोर माल खाते रहें-जब तक विश्वभूति को उद्यान से निकाला नहीं जायेगा, मैं अन्न जल नहीं लूंगी।" राजा विश्वनन्दी के सामने विकट समस्या खड़ी हो गई । आखिर उसने रानी को खुश करने के लिये एक उपाय सोचा। अचानक राजा ने युद्ध की भरी बजाई। उद्यान में क्रीड़ा करता हुआ कुमार विश्वभूति अचानक युद्धभेरी सुनकर चौंक उठा, क्षत्रिय-रक्त युद्धभेरी सुनकर चुप कैसे रह सकता था ? तत्क्षण वहाँ से चल पड़ा, रानियाँ रोकने लगीं, पर वह नहीं रुका । कर्तव्य की पुकार पर वह सीधा राजसभा में पहुँचा, देखा कि महाराज स्वयं युद्ध में जाने की तैयारी कर रहे हैं । सेनाएं सज रही हैं । कुमार ने पूछा---''महाराज ! अचानक युद्ध की घोषणा कैसे ! क्या बात है ?" राजा ने कहा ... "सीमा पर एक सामन्त है, जो काफी दिनों से सिर उठा रहा है, मैं उसी के साथ युद्ध करने जा रहा हूँ।" "महाराज ! मैं घर में बैठा रहूँ और आप युद्ध करने जायें, क्या मेरे लिये शर्म की बात नहीं ? मुझे आज्ञा दीजिये।" राजा तो यही चाहता था, उसने तैयार होने की स्वीकृति दे दी। विश्वभूति सेना को साथ लेकर चल पड़ा। उधर सामन्त ने विश्वभूति को सेना लेकर आते सुना तो वह घबरा उठा, विविध उपहार लेकर वह उसके सामने आया, हाथी-घोड़े, हीरे-मोती आदि विविध उपहार देकर विश्वभूति को प्रसन्न किया। विश्वभूति ने सामन्त को अनुकूल देखा तो उसे सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी और बिना युद्ध किये ही विजयदुंदुभि बजाता हुआ पुनः नगर को लौट आया। पीछे से विशाखनन्दी को मौका लगा और वह उद्यान में घुस गया। विश्वभूति जब पुनः लौटकर उद्यान में जाने लगा तो पहरेदारों ने रोक दिया"राजकुमार ! उद्यान में कुमार विशाखनन्दी अन्तःपुर के साथ क्रीड़ा करने गये हैं।" विश्वभूति रुक गया, उसके हृदय पर एक गहरा झटका लगा। सहसा उसके मन में एक विचार लहर उठी "ओह ! मुझे इस उद्यान से निकालने के लिये ही यह युद्ध का नाटक रचा गया लगता है ! और इस नाटक के सूत्रधार हैं महाराज स्वयं । मैं जिनके लिये प्राण न्यौछावर करने को तैयार हूँ वे ही महाराज मेरे साथ कपटनाटक खेल सकते हैं ? छी! छो!" विश्वभूति को महाराज के व्यवहार पर बड़ी घृणा हुई, मन क्रोध से भर उठा । दांत पीसते हुये पास में खड़े एक कौठ वृक्ष को उसने पाँव की ठोकर मार कर गिरा दिया । पहरेदारों पर लाल आँखें कर उसने कहा,
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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