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________________ साधना की पूर्व भूमिका | १७ ये) फिर अन्य भोगयोनियों में जन्म लेकर पुष्यमित्र नाम का ब्राह्मण हुबा । यहाँ भी विषयों से विरक्त होकर त्रिदण्डी तापस के रूप में विविध तप व धर्म विधियों का आचरण किया। इस प्रकार चौथे भव से पन्द्रहवें भव तक वह आत्मा अनेक बार स्वर्ग में जाता रहा, मानवदेह धारण कर त्रिदण्डी तापस के रूप में तप आदि की बाल-साधना करता रहा। मरीचि का जीव अनेक जन्मों में भ्रमण करता हुआ सोलहवें भव में राजगृह में विश्वनन्दी राजा के छोटे भाई विशाखभूति का पुत्र हुआ। वहाँ इसका नाम रखा गया विश्वभूति । राजा का पुत्र था विशाखनन्दी। दोनों भाइयों में बचपन से ही परस्पर में ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष चलता रहा था। यद्यपि विश्वभूति छुट भाई का पुत्र था, पर वह बड़ा ही तेजस्वी व पराक्रमी था, राजा का पुत्र विशाखनंदी कमजोर, भीरु और चिड़चिड़ा था। अपनी तेजस्विता के कारण विश्वभूति पूरे राज परिवार पर छाया हुआ था। उसे पुष्पक्रीड़ा का बहुत शौक था। अपनी रानियों के साथ राजकीय उद्यान में चला जाता और वहीं निरन्तर पुष्पक्रीड़ा में लीन रहता। फूलों के हार, गेंद आदि बना-बनाकर रानियों के साथ खेलने में उसे बड़ा आनन्द आता । बड़ा राजकुमार जब नौकरों के मुख से विश्वभूति की क्रीड़ाओं की चर्चा सुनता, तो उसका खाया-पीया जल उठता । उसमें इतना तो साहस नहीं था कि विश्वभूति को उद्यान में से निकाल कर स्वयं उसमें क्रीड़ा करने जाये। विश्वभूति के तेज के सामने देखने की भी उसमें हिम्मत नहीं थी। इस कारण वह जलता रहता। कभी-कभी अपनी माँ के सामने भी आकर गिड़गिड़ाने लगता। एकबार कुछ दासियों ने रानी के कान भरे-"राज्य का आनन्द तो विश्वभूति लूट रहा है। बड़े कुमार तो बिचारे निर्वासित से रहते हैं, न इन्हें उद्यान में घूमनेफिरने को स्थान और न कोई पूछ-ताछ ।' दासियों की बात रानी को चुभ गई। अपने पुत्र का अपमान और दुख देखकर वह आग-बबूला हो गई। क्रोध में आकर उसने राजा से कहा- "तुम्हारे राज्य में कितना अंधेर है ? अपना बेटा तो अनाथसा मुंह ताकता रहता है और छोटे भाई के बेटे मौज उड़ा रहे हैं ? हमारे राजकीय उद्यान !पुष्पकरंडक उद्यान) का, उसमें बने सुन्दर झरनों और सुवासित पुष्प मंडपों का आनन्द लट रहा है विश्वभति; और अपने बेटे को बगीचे के बाहर ही रोक दिया जाता है, भिखारी की तरह ! क्या इस राज्य पर उसका कोई हक नहीं है ?" राजा ने रानी को समझाया-"अपने कुल की मर्यादा है, जब कोई राजा, राजकुमार आदि अपने अन्तःपुर के साथ उद्यान में हो तो, दूसरा उसमें कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता।"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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