SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २८५ मानव भावना जे मासवा ते परिस्सवा, वे परिसवा ते मालवा। -आचा० १४२ जो बंधन के हेतु (आव) हैं वे ही कभी मोक्ष के हेतु हो सकते हैं और जो मोम के हेतु हैं वे ही कभी बंधन के हेतु हो सकते हैं। जे गुगे से आवटे जे आवट्टे से गणे। - आचा० ११०० जो कामगुण हैं, इन्द्रियों के शब्दादि विषय है, वही आवर्त (आव) संसार-चक्र है और जो आवर्त है (आश्रव है) वही कामगुण है। संबर भावना तुझंति पावकम्माणि नवं कम्ममकुब्वमओ। -सूत्र० १११५२६ जो पुरुष नये कर्म नहीं करता, कर्मों का निरोध (संवर) कर देता है उसके पुराने कर्म भी छूट जाते हैं। पाक्खाणे इच्छानिरोहं जणयह । इच्छानिरोहं गएयणं जीवे सम्बदम्वेसु विणीयतहोसोइए बिहरह। -उत्त० २९।१४ प्रत्याख्यान (संवर) से इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इच्छानिरोध करने पर जीव सब पदार्थों के प्रति तृष्णारहित होकर परम शीतलता (शांति) के साथ रहता है। निर्जरा भावना धुणिया कुलियं व लेववं किसए नेहमणसमा इह। -सूत्र. १२२।१।१४ जैसे लेप वाली भीत को लेप गिराकर नष्ट कर दिया जाता है इसी प्रकार अनशन आदि तपों द्वारा देह को (कर्मों को) कृश किया जाता है। तवनारायवृत्तंग मेत्तम काम कंचयं । मुगी विगयसंगामो भवामो परिमन्थए। - उत्त० ६।२२ तप रूपी बाण से सन्नद्ध होकर कर्मस्पी कवच को भेदने वाला मुनि, इस संग्राम का (संसार का) अंत कर जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy