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________________ २८४ | तीर्थंकर महावीर बीवियं व बिज्जुसंपायचंचल। -उत्त० १८१३ यह जीवन ! यह रूप और यौवन बिजली की चमक की भांति चचल है। अनित्य है। एकत्व भावना मनस्स दुक्कं असो न परियाइयह """ परोयं बायह पत्तेयं मरह" -सूत्रकृतांग २०१॥१२ दूसरे का दुःख कोई दूसरा नहीं बंटा सकता। प्रत्येक प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है। एक्को सयं पच्चण होइ बुलं कत्तारमेव अणुजाइ कम्म । -उत्त० १३३२३ मनुष्य अकेला ही अपना दुःख भोगता है, ज्ञातिजन, मित्र आदि कोई बंटा नहीं सकते । क्योंकि कर्म तो कर्ता (करने वाले का) का पीछा करता है। एगे अहमति, न मे अस्थि कोई, न याहऽमवि कस्सवि । -आचा० १२६ मैं एक हूं, अकेला हूं, न मेरा कोई है, न मैं किसी का हूं। अन्यत्व भावना अन्ने खलु काममोगा, अन्ने अहमसि । से किमंग पुण वयं अन्नमन्ने हि काममोगेहि मुच्छामा ? -सूत्र० २।१।१३ ये काम-भोग अन्य हैं और मैं अन्य हूं। फिर हम क्यों अन्य वस्तु में आसक्त हो रहे हैं ? एगमप्पागं संपेहाए पुणे सरीरगं । -आचा० १२४३ आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त गरीर को (कर्मों को) धुन गलो। अशुचि मावना इमं सरीरं अणिचं असुई असुइसमवं। असासया वासमिणं दुक्खकेसाण मायगं। -उत्त० १९१३ यह शरीर अनित्य है, अशुचिपूर्ण है, अशुचि पदार्थों से ही उत्पन्न होता है। इस शरीर रूपी पिंजरे में आत्म-पक्षी का वास अस्थिर है, यह देह, दुःख एवं क्लेशों का पर है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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