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________________ सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २७६ माणेष महमा गई। -उत्त. ५४ अहंकार करने से अधमगति प्राप्त होती है। न माइमत न य स्वमते, न लाममले नसुएलमत्ते। . मयाणि सम्बामि विवन्नइत्ता धम्मज्माणरएस मिक्लू॥ -दश० १०१९ जो जाति का, रूप का, लाभ का, श्रुत (ज्ञान) का मद-अहंकार नहीं करता। सब प्रकार के अहंकारों का त्यागकर धर्मध्यान में लीन रहता है, वह भिक्ष है। लाधव (लघुता) लावियं, मप्पिच्छा, अमुच्छा, अगेही, अपरिबन्धया समगागं निग्गंपानं पसत्वं । -भगवती १९ श्रमण नियन्यों के लिए लघुता (आत्मा का हल्कापन) प्रशस्त है । वह अल्पइच्छा, अमूर्छा, अगृहता, अप्रतिबद्धता रूप है। विजहित. पुन्यसंजोगं न सिहं कहिचि कुब्वेज्जा । मसिणेह सिणेह करेहि, दोसपनोसहि मुन्थए मिक्लू ।। -उत्त० सार पूर्वसंयोग को छोड़ चुकने पर फिर किसी भी वस्तु में स्नेह नहीं करना चाहिए। जो मोह करने वालों के बीच में भी निर्मोही होकर रहता है, वह भिक्षु समस्त दोषों से छूट जाता है। पि बत्व पायं वा कंबलं पायपुच्छणं । तं पि संजमलम्बठ्ठा, धारंति परिहरति । - दश० ६१२० वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि जो भी उपकरण हैं, उन्हें मुनि संयम की रक्षा के लिए धारण करते हैं । आवश्यकता न होने पर उन्हें भी छोड़ देते हैं। सत्य सच्चमि घिई कुबहा । -आचा० १३३२ सत्य में स्थिर रहो!' संयम संगमे बनायत गया। -उत्त० २९।२६ संयम से कर्मों का मनानव (संवर) होता है । १ विशेष मत्य प्रकरण में पृष्ठ २७४ पर देखें
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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