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________________ २५८ | तीर्थकर महावीर उसमसारं सामन। -स्थानांग ६ श्रमणत्व का सार है उपशमभाव ! क्षमा! सामि सब्य जोवे सम्बे जीवा लमंतु मे। मिती मे सबभूएसु मेरे मन मणा ।। -आवश्यक सूत्र ४१२२ मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हं। सब जीव भी मुझे क्षमा करें। सबके प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी के साथ भी पैर-विरोध नहीं है। मुक्ति (निर्लोमता) मुत्तीए में अकिंचचं बणयह। -उत्त० २९४७ मुक्ति-निर्लोभता की साधना से आत्मा अकिंचनभाव (सर्वत्र निस्पृहताममत्व मुक्ति) को प्राप्त कर लेता है। म लोगस्सेसणं बरे। जस्स नत्वि इमा बाई मणा तस्स को सिया। -आचा० १४१ लोकषणा से मुक्त रहना चाहिए। जिसको यह लोकेषणा नहीं है, उसको अन्य पाप-प्रवृत्तियां कैसे हो सकती हैं ? सरलता (ऋजुता) अज्जवयाए – काउन्धुपयं, भावुन्दुपयं, मासुन्नुययं अविसंवायणं नमबह ॥ -उत्त० २९४८ ऋजुता (सरलता) से काया की सरलता, भावों की निष्कपटता, भाषा की सरलता-स्पष्टता और जीवन में एकरूपता बाती है। सोही उन्नुभूयस्स धम्मो सुरस चिह । -उत्त० ३११२ जो ऋजुभूत (सरल आत्मा) होता है, उसी का अन्तःकरण शुद्ध होता है, और शुद्ध हृदय में ही धर्म का निवास रहता है। मृढता (अमानित्व) महवयाए में अस्तिपत्त बषयह। -उत्त. २९४६ मृदुता से अनुत्सुकता, अहंकार रहितता बाती है। मा महबया चिने। -दश १२१ अहंकार को मृदुता से जीतना चाहिए।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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