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________________ २७० | तीर्थकर महावीर बाकता विकत्ता बहाण य सुहानाय। अप्पामितमनितं. दुष्पदिव्य सुपदियो॥ -उत्त० २०३७ सुख-दुःख का कर्ता-अकर्ता आत्मा ही है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है, दुराचार में प्रवृत्त पात्मा शत्र है। अप्पा मह पेपरणी, बप्पा मे कूरसामली। अप्पा कामनुहा घेवू, मप्पा मे नव वर्ष । -उत्तरा० २०३६ यह आत्मा ही वैतरणी नदी है, यही कूटशाल्मली वृक्ष है। मात्मा ही इच्छानुसार फल देने वाली कामधेनु है, और यही नन्दनवन है। धर्म-तत्त्व [धर्म वह तत्व है जो आत्मा को शाश्वत सुखों की राह बताता है। इस जीवन में शांति, समता और परलोक में सुख आनन्न जिस किया से प्राप्त होता है, उसे धर्म कहा गया है। वास्तव में धर्म मात्मा की शुम परिणति ही है, समत्व-साधना ही धर्म है। यहां धर्म का स्वरूप और उसका महत्व प्रस्तुत है। धर्म का स्वरूप और महिमा धम्मो मंगलमुक्किट्ठ महिला संगमो तवो। -दशव० ११ अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। समिवार बन्ने मारिएहि पए। -आचारांग रामा मार्य पुरुषों ने समता-समभाव में धर्म कहा है। बोधन समिपं साह। -सूत्रकृतांग ६४ यह समता रूप धर्म, दीपक की भांति अमान बन्धकार को दूर करने वाला है। एला धम्म परिमा, से मापा पम्यवाए। -स्थानांग १३१४. धर्म ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे बात्मा की विशुद्धि होती है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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