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सिवान्त-साधना-शिक्षा | २६७ के फल स्वयं भोगने ही पड़ते हैं। फल भोगे विना कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता है।
महा कर कम्म, तहासि भारे। -सूत्र. ११५१२२६ जैसा किया हुआ कम है, वैसा ही उसका भोग है।
माठ कर्म अट्ठ कम्माई वोच्छामि, माणधि बहाकर्म।
बेहि बडो अयं गोबो संसारे परिपट्टा ॥ -उत्त० ३३३१ जिन कर्मों से बंधा हुमा यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है, वे संख्या में माठ हैं । यथाक्रम से उनका वर्णन किया जाता है।
नागस्सावरणिज्य, वसनावरणं तहा।
यणिज्ज तहा मोहं, आउफम्म तहेब ५ ॥ नाम कम्मं गोतंब अंतरायं तहेब य। एवमेवाइ कम्माई अद्वैव उ समासमो॥
-उत्त० ३३१२,३ (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) मायु, (६) नाम, (७) गोत्र और () अन्तराय - ये सक्षेप में आठ कर्म हैं।'
कर्म-बीज रागो य बोसो विय कम्मवीयं, कम्मं - मोहप्पमवं वर्षति । कम्मं बाइमरणस्त मूल, दुवं । जाइमरणं वयंति ॥
-उत्त० ३२७ राग और देष ये दोनों कर्म के बीज है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है, ऐसा शानियों का कथन है। कर्म जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण दुःख की परम्परा का कारण है।
१ इन कर्मों का क्रमशः निम्न स्वरूप है(१) ज्ञानशक्ति का अवरोषक, (२) दर्शनशक्ति का अबरोधक, (३) शाश्वत सुख का अवरोधक (४) मोह व राग का हेतु-श्रद्धा एवं चारित्र का अवरोधक (५) जन्म-मरण का हेतु, (६) सुस्पता-कुरूपता, यश, कीति, अपयश बादि का कारण, (७) संस्कारी असंस्कारी कुल व जाति का हेतु, (८) आरम-शक्ति के विकास का अवरोधक, हानि-लाभ का हेतु ।