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________________ २६६ | तीर्थंकर महावीर मियादर्शन-ये अठारह पाप है। इनके सेवन से जीव आठ कर्मप्रकृतियों का बन्धन करता है। उस कर्मबन्धन से जीव भारी होकर अधोगति में जाता है तथा इन अठारह पापों से विरक्त होने पर क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय कर लघुत्व प्राप्तकर ऊर्ध्वगमन करता है। स्वकृत-कर्म बमिषं जगई पुढो जगा, कम्मेहि सुप्पन्ति पाणियो। सपमेव कोहि गाहइ नो तस्स मुच्वेन्नपुटव्यं । -सूत्र० ११२।१४ इस जगत में जो भी प्राणी हैं, वे अपने-अपने संचित कर्मों से ही संसार भ्रमण करते हैं और स्वकृत-कर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता। अस्सिं च लोए अदुवा परत्पा, सपागसो वा तह मन्महा था। संसारमावन्न परं परं ते, बंति वेयंति य दुन्निवाणि ॥ - सूत्र. १७४ कृत कर्म- इसी जन्म में अथवा पर जन्म में भी फल देते हैं। वे कर्म एक जन्म में अथवा सहस्रों-अनेकभवों में भी फल देते हैं। जिस प्रकार वे कर्म किये गये हैं, उसी तरह से अथवा दूसरी तरह से भी फल देते हैं । संसार में चक्कर काटता हुमा जीव कर्मवश बड़े-से-बड़ा दुःख भोगता है और फिर आर्तध्यान- (शोकविलाप आदि) करके नये कर्मों को बांधता है। इस प्रकार कर्म से कर्म की परम्परा चलती है । बंधे हुए कर्म का फल दुनिवार-मिटाना अशक्य है। सम्बे सयकम्मकप्पिया, मवियतेम दुहेग पाणिणो । हिन्ति मयाउला सढा, जाइजरामरणहिमिया ॥ -सूत्र० १॥२॥३॥१८ __सर्व प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही पृथक-पृथक् योनियों में अवस्थित हैं। कर्मों की अधीनता के कारण अव्यक्त दुःख से दुखित प्राणी जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत रहते हुए चार गति रूप संसारचक्र में भटकते हैं। तेथे महा सन्धिमुहे गहीए, सकम्मुना किन्या पावकारी । एवं पवा पेचपलोए, कान कम्मापन मुक्त पत्ति।। - उत्त.१३ जैसे पापी घोर बात के मुंह पर (चोरी करते हुए) पकड़ा जाकर अपने कमों के कारण ही दुःख उठाता है, उसीप्रकार इस लोक में या परलोक में कर्मों
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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