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________________ कल्याण-यात्रा | २३९ अभयकुमार ने हर संभव प्रयत्न किया, पर रोहिणेय ने अपना कुछ भी अपराध स्वीकार नहीं किया। आखिर उसे मादक सुरा पिलाई गई। और देवविमान की तरह सजे हुये सात मंजिले महल में उसे सुलाया गया। कुछ समय बाद रोहिणेय का नशा उता, बाँखें खुलीं, उसे देखकर विस्मय हमा-क्या, वह किसी स्वर्ग में पहुंच गया है ? तभी अप्सरा-जैसी दासियो आकर'जय ! विजय !' कहकर मधुर स्वर में बोलने लगीं-"आप हमारे स्वामी हैं, अभीअभी आप पृथ्वीलोक से प्रयाण कर इस स्वर्गविमान में अवतरित हुये हैं। अब आप हम अप्सराबों के साथ मन-इच्छित क्रीड़ा करते हुए स्वर्ग के सुख भोगिए।" रोहिणेय को लगा- "सचमुच ही में स्वर्ग में आगया हूं? वह विस्मय के साथ सब कुछ देख रहा था। तभी एक देव-वेषधारी आया, नमस्कार पूर्वक बोला"स्वर्ग में आपके अवतरण की बधाई । यहाँ की विधि के अनुसार प्रत्येक नव उत्पन्न देव को पहले अपने पूर्व-जन्म की सुकृत-दुष्कृत की कथा सुनानी पड़ती है, कृपया आप भी हमें बताइये आपने पूर्व जन्म में क्या-क्या पुण्य किये थे, जिनके प्रभाव से हमारे स्वामी बने हैं ?" रोहिणेय अपने सुकृत-दुष्कृत, पुण्य-पाप का स्मरण करने लगा-उसने तो जन्म भर चोरियां की हैं. कभी कोई पुण्य कार्य तो किया ही नहीं । वह अपने पूर्वजन्म के दुष्कृत-अध्याय को शुरु करने ही वाला था कि उसे सहसा भगवान महावीर की वाणी याद आ गई-"देवता के चरण पृथ्वी को नहीं छूते।" उसने आस-पास में बड़े देव-देवियों की तरफ देखा और सहसा चौंक उठा-धोखा ! प्रपंच ! महावीर सत्यवादी हैं, ये लोग निश्चय ही देव नहीं। मुझे जाल में फंसाने की कोई चाल है। माया है। वह संभल गया और सहजमुद्रा में बोला-"मैंने तो अपने पूर्वजन्म में सब कुछ सुकृत-ही-सुकृत किया, पाप तो कभी किया ही नहीं।" अभयकुमार की अंतिम चाल भी असफल हो गई। रोहिणेय पकड़ा गया, मगर अपराध सिद्ध न होने पर छोड़ना पड़ा। रोहिणेय साफ बचकर घर पर मा गया। रोहिणेय रात भर करवटें बदलता सोचता रहा-"आज मैं जाल में गहरा फंसकर भी साफ बच गया, मृत्यु के मुंह में पहुंचकर भी निकल पाया सिर्फ सत्य. वादी महावीर की वाणी के एक शब्द के सहारे ।" महावीर की सत्यता पर रोहिणेय को पूर्ण बास्था हो गई, अब महावीर के चरणों में पहुंचने के लिए विकल हो उठा, मण-क्षण का विलम्ब असा हो गया । प्रातः होते-होते वह सीधा महावीर के चरणों
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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