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________________ कल्याण-यात्रा | २२३ का मत है, तुम्हारे मत के अनुसार तो सर्वथा जले हुए को ही 'जला' कहा जा सकता है।" ___ढंक के मुक्तिपूर्ण समाधान से प्रियदर्शना के अन्तश्चक्षु खुल गये। उसे लगा, जमालि का कथन युक्तिरहित एवं अव्यावहारिक है। साथ ही वह अनुगमन तत्त्व. चिंतन से नहीं, किन्तु मोह-वश कर रही है। मोह ही समस्त भ्रांतियों का और दुःखों का मूल है-बस, प्रियदर्शना की अन्तरात्मा जागृत हो उठी। जमालि का अनुगमन छोड़कर वह भगवान् महावीर के साध्वी-संघ में पुनः सम्मिलित हो गई। जमालि के अनेक शिष्य भी उसकी धारणा की अयथार्थता समझकर, उसे छोड़कर पुनः धर्मसंघ में आ गए। किन्तु मिथ्याभिनिवेश, पूर्वाग्रह एवं मानसिक संक्लेश के कारण जमालि महावीर के विरुद्ध ही प्रचार करता रहा। अंत में अनशन करके उसने देहत्याग किया। जमालि जैन-परम्परा में पहला निन्हव माना जाता है। उसकी धारणा 'बहुरतवाद' नाम से प्राचीन ग्रंथों में बताई गई है।' ज्ञान-गोष्ठियां श्रावस्ती में श्रमण केशीकुमार के एक प्रश्न के उत्तर में गणधर इन्द्रभूति ने बताया कि धर्म के तत्त्व को बाह्य बाचार से नहीं, किंतु सत्योन्मुखी प्रज्ञा से परखना चाहिए। ___ गौतम के इस उत्तर में भगवान महावीर के प्रज्ञावाद की ध्वनि स्पष्ट गंज रही है । भगवान् पार्श्वनाथ तक का युग ऋजु-प्राज्ञ अर्थात् श्रद्धाप्रधान युग था। महावीर का युग तर्क-प्रधान अर्थात् प्रज्ञा-प्रधान युग था। उस युग में तत्त्ववाद एवं ज्ञानवाद का बोलबाला था। इसलिए भगवान् महावीर की प्रवचन-शैली तर्कप्रवण रही। वे जिज्ञासुओं को विभिन्न तर्क एवं युक्तियों के द्वारा तत्त्वबोध देते थे । समयसमय पर अनेक अन्यतीथिक विद्वान, परिव्राजक तथा स्वतीथिक श्रमण एवं श्रमणोपासक भगवान के समक्ष आकर विविध प्रकार की तत्त्वचर्चाएं करते रहते थे। उन चर्चाजों का पूर्ण विवरण आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु फिर भी भगवतीसूत्र में गौतम 'बहुरतबाद' की विस्तृत चर्चा के लिए देखें-विशेषावश्यक भाष्य गाथा २३२४ से २३३२ ___ तथा श्रमण भगवान महावीर, परिशिष्ट पृष्ठ २५५ से २५८ तक २ पन्ना समिथए धम् । -उत्तय ११
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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