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________________ २२२ | तीर्थकर महावीर है, केवलज्ञानी नहीं है, किन्तु मैं तो सम्पूर्ण केवलज्ञान से युक्त अहंत, जिन और केवलज्ञानी हूं।" जमालि की आत्म-स्तुतिपरक वाणी सुनकर गणधर गौतम ने प्रतिवाद करते हुए कहा-जमालि ! केवलज्ञान और केवलदर्शन कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे बताना पड़े । सूर्य को बताने के लिए जैसे दीपक की जरूरत नहीं, वैसे ही केवलज्ञान की दिव्य-ज्योति को बताने लिए अपने को केवलज्ञानी ख्यापित करना व्यर्थ है । केवलज्ञानी कहीं छिपा रहता है ? केवलज्ञान के दिव्य प्रकाश को अगाध समुद्र, गगनचुम्बी पर्वत-मालाएं और अंधकारमरी गुफाएं भी अवरुद्ध नहीं कर सकतीं । तुम्हें यदि कोई ज्ञान हुमा है तो मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो लोक शाश्वत है या बजावत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? इन्द्रभूति के प्रतिरोध पर जमालि हतप्रम-सा देखता रहा । उसे कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा । तब भगवान ने कहा-'जमालि ! मेरे ऐसे अनेक शिष्य हैं जो छप्रस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। तुम केवली होने का दावा करके भी निरुत्तर कैसे हो गये ? क्या केवलज्ञान का अस्तित्व बताने के लिए केवली को अपने मुख से घोषणा करनी पड़ती है ? तुम गलत धारणा एवं अहंकार के वश होकर मिथ्या प्ररूपणा कर रहे हो। यह तुम्हारी आत्मा के लिए हितकर नहीं है।' भगवान् के कथन से जमालि अधिक ऋद्ध हो उठा, वह वहां से चलकर अपने स्थान पर आया और मिथ्या-बाग्रहवश अपनी भ्रांत बातों से जनता को बहकाने लगा। प्रियदर्शना भी जमालि की मिथ्यापारणाओं से प्रभावित हो गई। वास्तव में मोह का सूक्ष्म आवरण तत्त्वचिंतन की मेघा को आवृत कर डालता है। प्रियदर्शना तत्त्वचिंतन से भी अधिक राग से खिंची रही और एक हजार साध्वियों के साथ. जमालि का अनुगमन करने लगी। एक बार जमालि की उपस्थिति में ही प्रियदर्शना श्रावस्ती आई और भगवान के तत्वज्ञ श्रावक ढंक कुम्हार की भांडशाला में ठहरी। ढंक ने प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए उसकी संघाटी (चादर-पछेवड़ी) के एक कोने पर अग्निकण रख दिया, संघाटी जलने लगी। प्रियदर्शना हठात् बोल उठी-"आर्य! यह क्या किया ? तुमने मेरी संघाटी जला दी ?" ढंक मे प्रत्युत्तर में कहा-"बाय! बाप मिथ्या भाषण क्यों कर रही है ? संघाटी सभी जली कहाँ, बलनी हुई है। पलते हुए को जला कहना महावीर
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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