SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-यामा | २० स्कन्दक परिवाचक श्रावस्ती के निकट गर्दभालि नामक आचार्य का एक विशाल आश्रम था, वहां स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था। स्कन्दक गर्दभालि का प्रमुख शिष्य था और वेद-वेदांग. षष्टितंत्र, दर्शनशास्त्र आदि का प्रकांड विद्वार था। विद्वत्ता के साथ उनमें विनम्रता. सरलता और तत्त्व-जिज्ञासा भी थी, वह विशिष्ट तपस्वी भी था। एक बार स्कन्दक श्रावस्ती में आया। वहाँ पिंगलक नामक निग्रन्थ श्रमण से उसकी भेंट हुई । शान-चर्चा चली तो पिंगलक ने स्कन्दक से कुछ प्रश्न पूछे । स्कन्दक यद्यपि विद्वान था, पर पिंगलक के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका, वह मौन रहा और उनका उत्तर सोचने लगा। उन्हीं दिनों श्रावस्ती के निकटवर्ती कृतंगला नगरी के छत्रपलास उद्यान में भगवान महावीर का आगमन हुआ।' उसने श्रावस्ती में इसकी हलचल देखी तो स्कन्दक ने सोचा-श्रमण महावीर महाद ज्ञानी हैं, मैं उन्हीं के पास जाकर इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त करूं । जिज्ञासा जब प्रबल होती है तो वह न परम्परा का बन्धन मानती है और न क्षेत्र की दूरी ही उसके वेग को मंद कर सकती है । तत्त्व-जिज्ञासा ने स्कन्दक को भगवान महावीर के समवसरण की ओर बढ़ा दिया । वह अपने परिव्राजक वेश के सभी उपकरणों व चिह्नों के साथ कुतंगला की ओर चल पड़ा। उस समय भगवान महावीर ने गणधर गौतम को संबोधित करके कहा"गौतम ! आज तुम अपने एक पूर्व-परिचित स्नेही (बाल-मित्र) को देखोगे ।" उत्सुकता के साथ गौतम ने पूछा-"मंते ! मैं किस पूर्व-परिचित को देखेगा ?" महावीर-''तुम आज कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को देखोगे।" गौतम-"ते ! वह यहां क्यों आ रहा है ?" महावीर . "पिंगलक श्रमण ने उससे लोक व सिद्धिविषयक अमुक प्रश्न पूछे हैं, जिनका उत्तर स्कन्दक नहीं दे सका । उन प्रश्नों का उत्तर खोजने में उसकी मेषा उलझ गई, उसके मन में जिज्ञासा प्रबल हुई, तभी उसे हमारे आगमन की सूचना मिली तो वह अपने मन की उलझी गुत्थी को सुलझाने यहाँ आ रहा है।" भगवान् के उत्तर से गौतम का औत्सुक्य बढ़ गया । जैसे उन्हें अपने ही पूर्वजीवन की स्मृति का मधुर संवेदन होने लगा। वे भी एक दिन पहले प्रतिवादी बनकर, फिर विज्ञासावश प्रभु के निकट आये थे और सत्य का महाप्रकाश प्राप्तकर १बीमा काल का तेईसवी वर्ष-वि. पू. ४६०-|
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy