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________________ २०४ | तीर्थकर महावीर प्रभाव के कारण उसे विभंगशान उत्पन्न हुबा, जिसके द्वारा ब्रह्मदेवलोक तक के देवतानों की स्थिति जानने लगा। उसे लगा कि बस, संसार इतना ही है, जितना कि मैंने देखा है। वह अपने अपूर्ण ज्ञान को ही पूर्ण मानकर लोगों में उसका प्रचार करने लगा। इसीप्रसंग पर भगवान महावीर वाराणसी से राजगृह जाते हुए बीच में बालंभिका के शंखवन में रुके ।' भगवान के प्रधान शिष्य गणधर इन्द्रभूति भिक्षा के लिए नगर में गए तो वहां लोगों में पुद्गल परिव्राजक के दिव्य-ज्ञान की और लोकविषयक धारणा की चर्चा सुनी। उन्हें लगा-पुद्गल की यह धारणा अधूरी व प्रांत है, तथापि उसकी सत्यता के विषय में वे निश्चित रूप से जानने को उत्सुक हए । वे भगवान् के निकट आये और प्रश्न किया। ___ भगवान् महावीर ने कहा-"गौतम ! पुद्गल की धारणा प्रांत है, अधूरी है। ब्रह्मदेवलोक से ऊपर भी देव-विमान हैं, ब्रह्मदेवलोक पांचवां देवलोक है, जबकि कुल देवलोक छब्बीस हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की है।" प्रभु द्वारा किया गया यह स्पष्टीकरण उपस्थित श्रोताओं ने भी सुना और उसकी चर्चा पुद्गल परिव्राजक तक भी पहुंची। उसने पहले ही सुन रखा था कि तीर्थकर महावीर सर्वज्ञ हैं, महान् तपस्वी हैं और संपूर्ण लोक-स्थिति के ज्ञाता है। उनके द्वारा कही हुई बात पर विचार करते हुए उसे अपने ज्ञान पर शंका होने लगी, वह विचार-वितर्क में उलझ गया और धीरे-धीरे उसका विभंगज्ञान भी लुप्त हो गया । अब उसे लगा-उसका अपना ज्ञान तो सचमुच ही भ्रांतिपूर्ण था। उसने जो कुछ प्रचार किया, वह असत्य था। अपने अज्ञान पर उसे क्षोभ भी हवा। सत्य की जिज्ञासा प्रबल हुई, वह भगवान् महावीर से यथार्थज्ञान पाने के लिए शंखवन की मोर चल पड़ा। पुदगल भगवाद के समवसरण में जा पहुंचा। वन्दना-नमस्कार कर उसने प्रभु का उपदेश सुना, तत्त्व-चर्चा की । उसके अज्ञान की प्रन्थि खुल गई, संशय छिन्न हो गया, और सत्य की दिव्य आस्था हृदय में चमक उठी । उसकी सत्य-श्रद्धा का वेग इतना प्रबल था कि वह अपने दंड-कमंडलु आदि समस्त बाह्य परिवेश का त्यागकर भगवान् का शिष्य बन गया । श्रमणधर्म ग्रहण कर उसने ग्यारह बंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के तपों की आराधना करता हवा कर्ममुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। १दीमा का बठारहवां वर्ष । वि. पु. ४६५-४६४। २ विस्तृत वर्णन के लिए देखिए-भगवती सूत्र १११२
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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