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________________ २०२ | तीर्थकर महावीर वाद समाधान पाकर उदक जब ऐसे ही उठकर चलने लगा तो उसकी अविनीतता (अव्यावहारिकता) गौतम को जरा खटकी, वे बोले-"आयुष्मन् ! किसी श्रमणब्राह्मण के मुख से एक भी हितवचन सुनकर योग-क्षेम का मार्ग जानने वाला मनुष्य उस उपदेशक का आदर करता है, और आप तो किसी प्रकार के आदर, कृतज्ञताज्ञापन तथा अभिवादन के बिना यों ही उठकर चल रहे हो, क्या तुम्हें इस सद्व्यवहार की विधि का परिज्ञान नहीं है ?" - गौतम के इस स्पष्ट तथा मार्मिक कथन पर उदक रुक गया। बोला"महानुभाव ! सचमुच ही मुझे इस प्रकार के धर्म-व्यवहार का ज्ञान आज तक नहीं था। अब मैं आपके कथन पर श्रद्धा करता हूं और चातुर्यामधर्म-परम्परा के बदले पंचमहावतिक धर्म-मार्ग स्वीकार करना चाहता हूं।" गौतम ने उदक की जिज्ञासा में प्रबलता देखी तो वे उसे भगवान् महावीर के पास ले आये। उदक ने भगवान् से पंच महाव्रत-धर्म में प्रवेश पाने की उत्कंठा बताई। भगवान की अनुमति पाकर उदक उनके धर्म-संघ में सम्मिलित होगया।' भगवान महावीर के धर्म-संघ में पार्श्वनाथ-परम्परा के सम्मिलन की ये घटनाएं भगवान महावीर की दो दृष्टियां स्पष्ट करती हैं १. सत्य-शोधक में परम्परा का व्यामोह नहीं होता। जब सत्य की जिज्ञासा प्रबल हो जाती है तो साधक परम्परागत पद, मान व सम्मान की आकांक्षा से मुक्त होकर मात्र सत्य के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देता है। २. सत्य की अनुगामिनी कोई भी परम्परा चाहे वह प्राचीन हो या नवीन, उसका विरोध या अनादर नहीं करना चाहिए और बलात् एकीकरण का प्रयत्न भी नहीं होना चाहिए। परम्परा के अनुयायियों में जब सत्य की अन्तष्टि खुल जाती है तो वे दूर या पृथक्-पृथक् रह ही नहीं पाते। वे स्वतः ही एकाकार हो जाते हैं, जैसे जल नदी में मिलकर । वास्तव में लिंग, वेश, बाह्य सीमाएं ये सब मात्र लोकव्यवहार है, तत्त्वतः आत्मदृष्टि तथा कषायमुक्ति ही सच्ची साधना है। महावीर की इन्हीं दोनों दृष्टियों को स्पष्ट करने के लिए पार्श्वनाथ-परम्परा के सम्मिलन व तत्त्वचर्चा की ये घटनाएं यहां प्रस्तुत की गई हैं। १देखिए सूबहतांग तस्कंध २, नालंदीय वध्यपन ।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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