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________________ १९४ | वीर्षकर महावीर बाला शतानीक स्वयं चंडप्रद्योत के आक्रमण का शिकार हो गया था और बालक उदयन को अनाथ अवस्था में छोड़कर चल बसा था। ऐसा होता ही है-दूसरों का घर उजाड़ने वाला स्वयं भी उजड़ जाता है। यहां यह बता देना आवश्यक है कि उज्जयिनीपति चंडप्रद्योत और शतानीक परस्पर साढ़ थे । शतानीक की रानी मृगावती और चंडप्रद्योत की रानी शिवादेवी महाराज चेटक की पुत्रियां तथा महावीर की बहनें (मौसी-पुत्री) थीं। कामांध पुरुष संसार का कोई भी सम्बन्ध नहीं देख पाता, यह बात चंड प्रद्योत के विषय में सही थी । मृगावती के अपूर्व सौन्दर्य से आकृष्ट हो उसको अपनी पटरानी बनाने का स्वप्न देखा, और उस हेतु कौशाम्बी पर आक्रमण किया। शतानीक की मृत्यु हुई। उदयन अनाथ हो गया। मृगावती ने अपने सतीत्व की, राजकुमार की और राज्य की सुरक्षा के लिए दीर्घदृष्टि से काम लिया। चंडप्रद्योत के प्रस्ताव का चतुराई के साथ उत्तर दिया ---"उदयन अभी बालक है, मैं पतिवियोग में दुखी हूं, प्रजा भयभीत है। अतः आप हमारी सुरक्षा व्यवस्था कीजिए, सब को आश्वस्त होने के लिए समय दीजिए, आखिर तो हम जायेंगे कहाँ ?" चतुर महारानी के उत्तर से आशान्वित होकर चंडप्रद्योत ने कौशाम्बी की सुरक्षा-व्यवस्था मजबूत कर दी और स्वयं अवन्ती चला गया, समय के इन्तजार में"...." इसी बीच भगवान् महावीर कौशाम्बी में पधारे थे। राजमाता मृगावती, तत्वज्ञा जयंती और उदयन आदि सभी महावीर की देशना सुनने आये। जयंती से जान-चर्चा भी हुई और अंत में जयंती ने दीक्षा ग्रहण कर ली।' राज्य में शांति और निश्चिन्तता थी। उदयन शस्त्रविद्या में निपुण हो गया था और भगवान महावीर भी कौशाम्बी में बार-बार पधार रहे थे। समय बीतने पर चंडप्रयोत ने मृगावती को अपना प्रणयपत्र भेजा । उत्तर में मृगावती ने सिंहनी की भांति हुंकार के साथ कामी राजा को लताड़ दिखाई। चंडप्रयोत को लगा-रानी ने मेरे साथ धोखा किया है।' कुछ हो उसने पुनः कौशाम्बी पर बाक्रमण कर दिया। अवन्ती की सेनाओं ने कौशाम्बी को घेर लिया। रानी ने कौशाम्बी के सुदृढ़ वज़मय द्वार बंद करवा दिये और भीतर अपनी सुरक्षा-व्यवस्था मजबूत करने लगी। युद्ध की इस विकट वेला में भगवान महावीर ने शांति का बीड़ा उठाया। १ जयंती की मानपर्चा देखें 'शान-गोष्ठियां' प्रकरण में
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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