SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-यात्रा | १७ "नहीं देखते है।" "देवलोक में रूप है या नहीं ?" "है, किन्तु देवलोकगत रूप देखे नहीं जा सकते।" मदुक-"आयुष्मानो! इसी तरह तुम या कोई छद्मस्थ मनुष्य जिस वस्तु को नहीं देख पाते, क्या उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है ? यदि आंखों से नहीं दीखने वाले पदार्थों का अस्तित्व न मानोगे तो तुम्हें लोक के अधिकांश पदार्थों को अस्वीकार ही करना पड़ेगा। मददुक की कुशल तों से अन्यतीर्षिक निरुत्तर हो गये और उनके मन में महावीर के सिद्धान्तों को जानने की उत्कण्ठा प्रबल हुई। मद्दुक भगवान महावीर की धर्म सभा में पहुंचा तो भगवान ने मददुक के निर्धान्त तत्वज्ञान की प्रशंसा की। कुंड कोलिक, मददुक आदि श्रावकों के उदाहरण से एक बात यही भी स्पष्ट होती है कि भगवान महावीर के श्रावक सिर्फ दृढ़ श्रद्धालु ही नहीं, किन्तु प्रखर तार्किक भी थे। महावीर की दृष्टि उनके अन्तरंग में उतर गई थी और वे अपनी कुशल तत्व-प्रतिभा के बल पर महावीर के तत्व-ज्ञान को अन्यतीथिकों के हृदय में उतार सकते थे । महावीर द्वारा उन तत्वज्ञ श्रावकों की प्रशंसा यह सूचित करती है कि महावीर श्रद्धा को प्रमुखता देते थे, पर अंधश्रद्धा को नहीं, तर्कपूर्ण श्रद्धा अर्थात् श्रद्धा और प्रज्ञा ही उन्हें अधिक प्रिय थी। इसप्रकार भगवान महावीर के धर्म-संघ के कुछ प्रमुख श्रावकों का यह जीवन-परिचय यहाँ प्रस्तुत किया है, जिससे भगवान महावीर की जीवन-दृष्टि, दर्शन एवं तत्व-बोष की एक झांकी मिल जाती है। समत्व का धनी-पूणिया धावक भगवान महावीर के कुछ प्रमुख उपासकों के वर्णन से हम यह धारणा नहीं बना सकते कि उनके श्रावक सभी धनकुबेर ही होते थे या सभी का वैराग्य समृद्धि में ही जनमा था। हजारों-लालों धावक तो बहुत साधारण स्थिति के थे। जैसे धनकुबेरों ने अपनी इच्छाओं का दमन कर सम्पत्ति का सीमांकन किया, वैसे ही सामान्य गृहस्थों ने भी अति लालसा का त्याग किया । सन्तोष व्रत का सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि सद्भाव में जिस प्रकार समता रहे उसी प्रकार अभाव में भी मन समता में
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy