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________________ १८२ | तीर्थकर महावीर सद्दालपुत्र कुछ अचकचाया, पर अपने सिद्धान्त को अखंडित रखते हुए उसने कहा-"ये सब बर्तन नियतिवल से ही बनते हैं । उत्थान आदि की क्या आवश्यकता है ?" महावीर-"तुम्हारे इन बर्तनों को कोई पुरुष चुरा ले, बिखेर दे, फोड़ डाले या फेंक दे, तो तुम उसे क्या करोगे ?" सद्दालपुत्र (कुछ जोश के साथ)-"मैं उस पुरुष को पकड़ लूगा, पीटू गा उसका वध भी कर गलूगा।" । महावीर-"समझ लो ! कोई अनार्य पुरुष तुम्हारी धर्मपत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करने का प्रयत्न करे तो तब तुम क्या करोगे ?" सद्दालपुत्र-"मैं उस दुष्ट को पीटू गा, उसके प्राण तक ले लूंगा!" भगवान महावीर ने तर्क को सीधा घुमाते हुए कहा- "सद्दालपुत्र ! तुम्हारे सिद्धान्त (नियतिवाद) के अनुसार तो कोई भी पुरुष न बर्तन चुरा सकता है और न तुम उसे किसी प्रकार का दण्ड आदि दे सकते हो । चूंकि जो कुछ होता है वह तो सब नियति है, पुरुषार्थ और प्रयत्न को अवकाश ही कहाँ है ?" भगवान् महावीर के हृदय-स्पर्शी विवेचन से सद्दाल पुत्र की ज्ञान चेतना प्रबुद्ध हो गई, उसे प्रकाश-सा मिला और नियतिवाद की असारता एवं अव्यावहारिकता स्पष्ट प्रतीत होने लगी। उसने महावीर के दर्शन को समझा और अपनी पत्नी को भी समझाया । सत्य को समझने के बाद असत्य का आग्रह स्वतः समाप्त हो जाता है, सद्दालपुत्र महावीर के धर्म में दीक्षित हो गया। गाथापति आनन्द की भौति श्रावक-धर्म के व्रतों को ग्रहण कर लिया और अपार संम्पत्ति एवं भोग तृष्णा की मर्यादा कर समतामय जीवन बिताने लगा। सद्दालपुत्र के धर्म-परिवर्तन की बात सुनकर गौशालक दिग्मूढ़-सा हो गया, वह भावावेश में बोल पड़ा-"हाय ! पोलासपुर का धर्म-स्तम्भ गिर गया।" उसने सदालपुत्र को पुनः अपने धर्म में खींचने के जी-तोड़ प्रयत्न किये, परन्तु सद्दाल पुत्र अविचल रहा । श्रावक बनने के पन्द्रहवें वर्ष की घटना है-एक रात्रि में वह ध्यानस्थ बैठा था, कि एक मायावी देव ने उसे ध्यान-साधना से चलित करने की माया रची। चुल्लशतक आदि की भांति ही पहले उसे धर्म छोड़ने की धमकी दी, फिर पुत्रों को काट-काट कर कड़ाहे में गला, इस पर भी वह चलित नहीं हुआ तो उसकी प्रिय पत्नी अग्निमित्रा को कड़ाहे में डालने का भय दिखाया। सद्दालपुत्र सहसा पौंक पड़ा, उस अनायं पुरुष के पीछे दौड़ा, तो वह गायब हो गया । तब उसे
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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