SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-यात्रा | १८१ शिष्य बनकर रहा, तभी कुछ घटनाओं की प्रतिक्रिया उसके मन पर हुई और वह नियतिवाद का पक्का समर्थक बन गया । स्वतंत्र होकर फिर उसने अपने इस सिद्धांत का प्रचार भी खूब किया। उसके अनेक शिष्यों में से पोलासपुर का धनाढ्य गृहस्थ कुम्भकार सद्दालपुत्र प्रमुख था। उसके पास तीन कोटि हिरण्य की संपत्ति थी, तथा दस हजार गायों का एक गोकुल था। मिट्टी के बर्तन बनाने के व्यापार में उसकी दूर-दूर तक प्रसिद्धि थी तथा पांच सौ दुकानें चलती थीं । आजीवक परम्परा का वह प्रमुख और कट्टर समर्थक था । उसकी पत्नी अग्निमित्रा भी उसी धर्म की अनुगामिनी थी। एक बार सद्दालपुत्र अपनी अशोकवाटिका में बैठा था कि आकाशवाणी सुनाई दी-"सद्दालपुत्र ! कल प्रातः सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महाबाह्मण इस नगर में पधारेंगे, तुम उनकी वंदना-स्तवना-भक्ति करके अशन-पान आदि से उन्हें निमंत्रित करना।" देव वाणी सुनकर सद्दालपुत्र सोचने लगा-"ऐसे शुभ लक्षणों युक्त महा पुरुष तो मेरे धर्माचार्य मंखलिपुत्र गोशालक ही होने चाहिए।" किन्तु जब दूसरे दिन प्रातः वह उठा तो उसने सुना-नगर में श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं । ' देव वाणी से प्रेरित हुआ वह भगवान महावीर के दर्शनार्थ गया। भगवान महावीर ने पूछा-"सद्दालपुत्र ! तुम किसी देव वाणी से प्रेरित होकर यहाँ आये हो ?" विनम्रता एवं श्रद्धा के साथ वह बोला-"भगवन् ! हां, ऐसा ही है। मैंने आपके दिव्य प्रभाव का साक्षात् अनुभव किया है। आप मेरी भांडशाला में ठहरिए और शय्या-आसन आदि स्वीकार कीजिए।" । सददालपुत्र के आग्रह पर महावीर उसकी भांडशाला (विशाल दुकान) में ठहरे । मध्याह्न के समय सद्दालपुत्र बाहर खड़ा था, मिट्टी के कुछ बर्तन धूप में सूख रहे थे और कुछ सूखे हुए बर्तनों को छाया में रखवा रहा था। श्रमण भगवान् महावीर ने उसे सम्बोधित कर पूछा-"सद्दालपुत्र; ये बर्तन कैसे बने हैं ?" सद्दालपुत्र-"भंते ! पहले मिट्टी होती है, उसे जल में भिगोकर राख, गोबर मादि मिलाकर उसका पिंड बनाया जाता है, फिर पिंड को चाक पर चढ़ाकर हांगी आदि विभिन्न आकार वाले बर्तन बनाये जाते हैं। . महावीर-'ये बर्तन पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा बनते हैं अथवा उनके बिना ही ?" १ कि.. ४६१
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy