SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-यात्रा | १६७ ठहरे हुये थे। दोनों साले बहनोई ने प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानन्तर वे अध्ययन और तपश्चरण में जुट गये।। भोग के उत्कृष्ट साधनों का त्याग कर शालिभद्र और धन्य-अब योग के उत्कृष्ट मार्ग पर बढ़ने लगे । कठोर तपश्चरण, ध्यान आदि द्वारा उन्होंने शरीर की सम्पूर्ण वासना को भस्मसात् कर डाला । तीन-तीन, चार-चार मास के कठोर निर्जल उपवास से दोनों का शरीर अत्यन्त कृश हो गया, नस-नस निकल आई देह पर सिर्फ चमड़ी ओढ़ी हुई-सी लगती थी। एक बार धन्य-शालिभद्र भगवान महावीर के साथ विहार करते पुनः राजगृह में आये। दोनों को ही मासिक तप का पारणा था। अनुमति लेने के लिए वे भगवान के निकट आये । भगवान ने अनुमति देते हुए कहा-"आज तुम अपनी माता के हाथ से प्राप्त आहार से पारणा करोगे।" धन्य-शालिभद्र भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए भद्रा सेठानी के गृहद्वार पर पहुंचे। घोर तपश्चरण से दोनों के ही शरीर इतने कृश और क्लान्त हो गये थे कि वहां किसी ने इन्हें पहचाना तक भी नहीं। भद्रा स्वयं भगवान महावीर के दर्शनार्थ जाने की तैयारी में व्यस्त थी, उसने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया । गृह-द्वार पर आये दोनों तपस्वी (पुत्र और दामाद) बिना भिक्षा लिए ही लौट आये । नगर के बाहर आते-आते एक ग्वालिन ने तपस्वी को देखा, उसके हृदय में अज्ञात स्नेह का ज्वार उमड़ पड़ा । मुनियों को आग्रह के साथ उसने अपना दही भिक्षा में दे दिया। वहां से लौटकर शालिभद्र ने भगवान महावीर से पूछा-"भंते ! हम अपनी माता के द्वार पर भिक्षार्थ गये थे, पर वहां भिक्षा नहीं मिली आपने जो कहा था कि अपनी माता के हाथ से आहार ग्रहण कर पारणा करोगे-वह कैसे घटित हमा प्रभु..... ?" सर्वदर्शी प्रभु ने कहा-"जिस ग्वालिन ने तुम्हें दही दिया, वह तुम्हारे पूर्वजन्म की माता थी...."तभी तो स्नेहवश वह रोमांचित हो गई।" भगवान ने शालिभद्र के पूर्वजन्म की कथा सुनाई। धन्य और शालिभद्र ने पारणाकर आजीवन अनशनव्रत स्वीकार कर लिया और भारगिरि पर जाकर स्थिरमुद्रा में तपोलीन हो गये। भद्रा सेठानी भगवान महावीर के दर्शन करने आई । अपने प्रिय पुत्र (गालि १ घटना वर्ष, वि.पू. ४६६ । (तीर्थकर जीवन का पोषा वर्ष)
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy