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________________ १६६ | तीकर महावीर पर ही वे अपने घर बाये हैं, चौथी मंजिल में मैंने उन्हें ठहराया है, बेटा । दो-तीन मंजिल उतरकर तो अपने स्वामी का स्वागत करना ही चाहिए""" शालिभद्र माता के बाग्रह पर नीचे आया, अनमने भाव से राजा से भोपपारिक मुलाकात भी की। श्रेणिक और चेलणा आदि राजपरिवार शालिभद्र के वैभव व सौकुमार्य आदि से अत्यन्त चकित हुए, पर, शालिभद्र इस मुलाकात से सिम हो गया। उसने "स्वामी! नाय !" ये शन्द जीवन में पहली बार सुने । इन शब्दों की ध्वनि से उसके मन, मस्तिष्क और अन्तश्चेतना के तार मनझना उठे। उसे आज पहली बार अपनी तुच्छता और पामरता का भान हुआ। उसके मन में पराधीन की पीड़ा जगी, इस पीड़ा की टीस इतनी गहरी पैठी कि वह व्याकुल हो गया। उस पीड़ा से मुक्त होकर पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ निछावर करने को तैयार हो उठा। इसी बीच वह धर्मघोष नामक मुनि के सम्पर्क में आया, फलस्वरूप उसे पूर्ण स्वतन्त्रता का मार्ग-संयम-साधना का ज्ञान हुमा, धीरे-धीरे उसके मन में विषयों से विरक्ति होने लगी, प्रतिदिन एक-एक पत्नी और एक-एक शैय्या का परित्याग कर यह संयम-साधना का अभ्यास करने लगा। __ शालिभद्र की छोटी बहिन उसी नगर में श्रेष्ठी धन्यकुमार को व्याही थी। उसने अपने भाई के वैराग्य की बात सुनी तो वह उदास हो गई, आंखें भीग गई। धन्य ने उदासी का कारण जाना तो व्यंग्य के साथ बोले-"क्यों चिन्ता कर रही हो? उसका वैराग्य नकली है, एक-एक पत्नी को छोड़ने वाला कभी साधु-धर्म के असिधारा पथ पर नहीं चल सकता"..."" धन्य की पत्नी ने भी व्यंग्य में कहा-"आपसे तो वह भी नहीं हो रहा है, किसी का मज़ाक करना सरल है, त्याग करना कठिन"."कठिनतर है...!" धन्य के मन में सहसा एक चिनगारी उठी-"अच्छा, तो लो, हमने आज से सभी पलियों को एक साथ छोड़ दिया""" बस, संकल्प का वेग उमड़ा, फिर कौन रोक सकता था.. ? धन्य घर से निकल कर शालिभद्र के पास पहुंचे । और कहा- यदि वैराग्य सच्चा है तो क्यों नहीं सब कुछ एक साथ छोड़ देते... · जब भोग से घृणा हो गई तो फिर त्याग का नाटक क्यों ? माओ, वज-संकल्प के साथ बढ़े, चले पायो।" शालिभद्र (साला) और धन्य (बहनोई) दोनों घर से निकलकर चले बाये भगवान महावीर के पास । भगवान महावीर तब राजगृह के गुणशिलक चैत्य में
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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