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________________ १५६ | तीर्थकर महावीर के परम उपासक राजर्षियों के कारण उनका जन्म-प्रदेश भी विदेह (देहासक्ति-मुक्त) कहलाने लगा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि विदेहभूमि के कण-कण में निवृत्ति और अध्यात्म-भावना का एक दिव्य उच्छवास उमग रहा था। भगवान महावीर की वीतराग-साधना और धर्म-प्रचार ने उस उच्छवास में और भी तीव्र स्पन्दन भर दिया। लगभग तेरह वर्ष पूर्व इसी विदेहभूमि के क्षत्रियकुंडग्राम से श्रमण महावीर ने जिस अगम्य पथ की खोज में एकाकी अभिनिष्क्रमण किया था। अब उस लक्ष्य को प्राप्त कर, अनन्त सिद्धि और अगणित दिव्य विभूतियों से सम्पन्न हो, अहंत बनकर विशाल धर्म-संघ के साथ उसी जन्म-भूमि की पवित्र घरती पर चरण-विन्यास कर रहे थे, इस अविस्मरणीय सुखद वेला में नगर निवासियों के हृदय में कितना उल्लास, कितना गौरव उमग उठा होगा-इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। भगवान् महावीर ब्राह्मण कुंडग्राम के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में पधारे । जनता की अपार भीड़ दर्शनों के लिए आई । जन-समूह में सबसे आगे था - ग्राम का प्रमुख विद्वान, धनाढ्य और प्रभावशाली श्रावक ऋषभदत्त । उसकी धर्मपत्नी ब्राह्मणी देवानंदा उल्लास में विह्वल हुई उससे भी आगे बढ़कर भगवान् की बंदना करने आई। उसका समूचा शरीर रोमांचित हो गया, मुख कमल की भांति खिल उठा, आंखों से अवर्णनीय उल्लास टपकने लगा। हविग के कारण उसकी आंखों से प्रसन्नता के आंसू बह निकले । वात्सल्य के प्रबल वेग से उत्कंटित हो उसके स्तनों से दूध की धारा बह चली । देवानंदा एक विचित्र आश्चर्यजनक स्थिति में मंत्रमुग्ध होकर प्रस्तर-प्रतिमा की भांति निस्पंद, भाव-विभोर हुई खड़ी रह गई - एकटक देखती रही-प्रभु की मुखमुद्रा को ।। देवानंदा की यह असाधारण उत्सुकता और उसके शारीरिक विचित्र लक्षण देखकर किसको विस्मय नहीं हुमा होगा ? सभी दर्शक इस अबूझ पहेली को समझने के लिए आतुर थे, पर थे मौन ! तभी महान जिज्ञासु इन्द्रमति गौतम, जो चुपचाप यह असाधारण घटना देख रहे थे, प्रभु के सामने करवट खड़े हुए। ___ "प्रभो! यह देवानन्दा ब्राह्मणी आज पहली बार आपकी धर्म-सभा में आई है आपको देखते ही इसके शरीर में असाधारण परिवर्तन हो गये है, लगता है इसके हृदय में नारी-सुलभ मातृत्व का ज्वार उमड़ पाया है, इसकी विस्फारित अनिमिष मांड, प्रसन्नता से पुलकित मुख और हर्ष एवं मातृत्व भाव से उत्कंटित अंग-प्रत्यंग किसी अज्ञात रहस्य को व्यक्त करते-से लगते हैं........ !"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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