________________
कल्याण-यात्रा | १५५
प्रभु ने नन्दीषण को धैर्य बंधाया-"नन्दीषेण ! तुम पुनः जाग गये, यह अच्छा हमा। भोग में भी तुम्हारी अन्तश्चेतना योग की ओर केन्द्रित रही-पतन में भी पवित्रता के संस्कार लुप्त नहीं हुए-अतः तुम पुनः अपना कल्याण कर सकते हो। प्रमाद का क्षण ही जीवन में दुर्घटना का क्षण होता है, तुम दुर्घटनाग्रस्त होकर भी बच गये, अब पुनः उस प्रमाद के दलदल में मत फंसना - 'बीयं तं न समायरे'दुबारा उस भूल का आचरण मत करना।"
प्रभु के सानिध्य में नन्दीषण ने प्रायश्चित लिया और पुनः कठोर तपश्चरण रूपी अग्नि में आत्म-स्वर्ण को तपाने में जुट गया ।
मेषकुमार व नन्दीषेण की घटना का सूक्ष्म विश्लेषण भगवान् महावीर की अन्तर्भेदी जीवनदृष्टि को स्पष्ट करता है। वे मानते थे - दुर्बलता प्रत्येक मात्मा में रहती है, किन्तु इस दुर्बलता व तन्द्रा से ग्रस्त आत्मा में भी शक्ति व जागृति के सस्कार छिपे रहते हैं। जीवन का कलाकार वह है, जो दुर्बलता की आंधी में भी सबलता का दीप जला दे, विस्मृति और प्रमाद की अंधियारी में भी आत्मस्मृति और अप्रमत्तता का सूर्य उगा दे-भगवान् महावीर ने भी यही किया। मेघकुमार आत्म-विस्मति की निद्रा में सो रहा था-उसे अतीत की स्मृति के आलोक में खड़ा कर प्रभु ने जगा दिया, एक रात्रि के द्रव्य-जागरण में ही उसे शाश्वत जागरण का दिव्य-बोध दे दिया। नन्दीषण पथ से भटका था, किन्तु जब वह वापस लौट कर आया तो भगवान महावीर ने उसे सहज वात्सल्य के साथ पुन: अपना लिया । पथभ्रष्ट के साथ घृणा नहीं, किन्तु सहानुभूति और वत्सलता का व्यवहार कर उन्होंने बता दिया कि वे सच्चे बोधिदाता हैं, बोहियाणं का विरुद सार्थक करते हैं।'
वैदेही का विदेह-विहार
[एक अविस्मरणीय प्रेरक प्रसंग] मगध में अध्यात्म चेतना की ज्योति प्रज्वलित करके भगवान् महावीर अपनी जन्म-भूमि विदेह की ओर बढ़े । अध्यात्म की भाषा में महावीर स्वयं विदेह (देहासक्ति-मुक्त) थे। उनका जन्म-प्रदेश 'विदेह' कहलाता था। संभवतः इसका भी कारण उस पुण्य-भूमि की आध्यात्मिक विरासत हो रही हो । नमिराज और जनक जैसे निवृत्ति
१ घटना वर्ष वि. पू. ४६६ (महद-जीवन का प्रथम वर्ष) : प.पू. ४६E-YEI