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________________ संपूर्ण स्वाधीनता ऋजुवालुका नदी के तट पर साधक महावीर कैवल्य लाभ प्राप्त कर सिद्धि के द्वार पर पहुंच गये । वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, महंतु एवं जिन बन गये। उनका अब तक का जीवन, साधक का जीवन रहा, अब तक वे स्व-कल्याण के लिये प्रयत्नशील थे, अब जन-कल्याण का लक्ष्य उनके समक्ष स्फूर्त हो गया। अब तक सत्य एवं आत्मदर्शन के लिये मौन और एकान्त साधना करते थे, अब सम्पूर्ण सत्य उनके दिव्य ज्ञान में आलोकित हो उठा, आत्मसाक्षात्कार हो गया । अतः जन-जन के बीच जा कर उस अनुभूत सत्य को वाणी देना, उस गूढातिगूढ आत्मरहस्य का बोध देना उनका कर्तव्य बन गया । वे अब तक मौन साधना, तप एवं एकान्तचर्या की जिस दिशा में बढ़ रहे थे वे सब कार्य संपन्न हो गये, चूंकि तप, तितिक्षा, मौन स्वयं में कोई साध्य नहीं थे, वे सब थे उस मार्ग के पड़ाव, जहाँ ठहरता हुआ साधक अपनी मंजिल पर पहुंचता है। नौका स्वयं में कोइ साध्य नहीं, मात्र समुद्र या नदी को पार करने का एक साधन है, सीढ़ियां कोई मंजिल नहीं, मात्र प्रासाद-शिखर तक पहुंचने का एक आलम्बन है, महावीर की तप, तितिक्षा, मौन, एकान्त-वर्या आदि को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। इस दीर्घ साधना के बाद महावीर को जो उपलब्धि हुई-वह थी अन्तश्चेतना का संपूर्ण विकाश-सर्वज्ञता, पूर्ण समता और सम्पूर्ण स्वाधीनता । इस अपूर्व उपलब्धि को अब वे छिपा कर कैसे रखते ? विषमता, भय एवं परतन्त्रता के विषाक्त वाता. वरण में संत्रस्त विश्व को वे इस अमृत का पान कराना चाहते थे, वे विषमता को मिटा कर समता, भय को समाप्त कर अभय, कुटिलता एवं दम्भ का सर्वनाश कर सरलता तथा वासना और स्वार्थ की दासता से मुक्त कर पूर्ण स्वतन्त्रता का संदेश जगत को देना चाहते थे, और विश्व इसके लिए आतुर व उत्सुक था। महावीर की अनन्त करुणा. विश्ववन्सलता और अखंड धर्मचक्रवर्तिता उन्हें प्रेरित कर रही थीजगत के मंगल व कल्याण के लिये । वह महान वैवराज, जिसके पास अमृतघट भरा हो, संजीवनी औषधि का भंडार भरा हो, वह अपने समक्ष रोगी को तड़पते कैसे देख सकता है? वह करुणाशील संत, जिसके अन्त:करण में समता का अनन्त क्षीर सागर हिलोरें मार रहा हो, विषमता की अग्नि ज्वाला में जीवों को जलते देख, कैसे
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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