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________________ ११४ | तीकर महावीर विजयोन्माद में मत्त वत्सदेश की सेनाओं ने चम्पा नगरी में लूट-पाटअत्याचार, सुन्दरियों का अपहरण एवं बलात्कार का जो लोमहर्षक तांडव मचाया, उसका वर्णन सुनने पर भी आंसुओं से आँखें भीग जायं। इसी लूटपाट में एक रथिक (रथ-सैनिक) राजमहलों में घुस गया। वह हीरों-जवाहरात का लोभी नहीं, वरन सौन्दर्य का लोभी था। स्वर्ण, मणि-माणिक्य के खुले भण्डारों को छोड़कर भी उसने परम सुन्दरी रानी धारिणी एवं राजकुमारी वसुमती को अपने कब्जे में कर लिया और दोनों मां-बेटियों का अपहरण कर रथ में बिठा कर चल पड़ा। धारिणी के सजल सौन्दर्य पर वह अत्यन्त आसक्त हो गया। उसने रानी से काम-प्रस्ताव किया, और जब वह उसके सतीत्व पर आक्रमण करने को उतारू हुआ तो सिंहनी की भांति गर्जती हई धारिणी ने रथिक को ललकारा, विषयान्ध रयिक भूखे भेड़िये की तरह रानी के सतीत्व को चाट जाना चाहता था, तभी वीर क्षत्रियाणी ने जीभ खींच कर सतीत्व की रक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग कर डाला। यह दृश्य देखते ही रथिक स्तब्ध रह गया । एक ओर जाल में फंसी मृगीसी भयाकुल राजकुमारी भय से थर-थर कांप रही थी, माता का प्राणोत्सर्ग उसकी आंखों में सावन बन बरस रहा था, तो दूसरी ओर रथिक की नीचता और अधमता पर चण्डी की तरह आक्रोश के अंगारे भी बरसा रही थी-"रथिक ! सावधान । तुम्हारी नीचता ने मेरी मां के प्राण ले लिये है, अगर मेरी ओर हाथ बढ़ाया तो मैं भी उसी मार्ग पर चल पडूंगी, और सती को कष्ट देने के घोर पाप से तुम्हारा भी सत्यानाश हो जायेगा।" धारिणी के प्राणोत्सर्ग और वसुमती की ललकार ने रथिक के दुष्टहृदय को बदल दिया। वह गिड़गिड़ाता हुमा बोला-"राजकुमारी ! तुम मत डरो। मैं तुम्हें अपनी बहन मानता हूं, चलो, तुम बहन बनकर मेरे घर पर रहो।" • वसुमती आश्वस्त होकर कौशाम्बी में रथिक के घर पर रहने लगी । वह भूल गई कि वह कोई राजकुमारी है । एक नौकरानी की भांति वह घर का पूरा काम करती, दिनभर व्यस्त रहती, ताकि पुरानी दु:खद स्मृतियों को उभरने का अवकाश भी न मिले। पुराने, मैले-फटे कपड़ों में रहने और दिनभर दासी का काम करने पर भी पसुमती का स्वर्णकांति-सा दीप्त सौन्दर्य कैसे लिप सकता था? रषिक की पत्नी के हृदय में दासी (वसुमती) का यह सौन्दर्य शून बनकर चुभने लग । इस आशंका से वह व्यथित हो उठी कि मेरा पति इस दासी को ही अपनी प्रियतमा बनायेगा, अन्यथा
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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