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________________ साधना के महापप पर | १०१ लगा- "बाप खड़े-बड़े क्यों कष्ट उठा रहे हैं, आइये, मैं आपको सदेह ही स्वर्ग या अपवर्ग की यात्रा करा लाऊँ ?" इस माया का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। संगम ने अब बसन्त ऋतु की मन्द और मादक बयार बहाई, भीनी-भीनी सुगन्ध ! शान्त वातावारण, और नूपुर की झंकार करती हुई अर्धवसना अप्सराएं अपने मांसल, कामोत्तेजक अंगों का प्रदर्शन कर काम-याचना करने लगीं, महावीर के समक्ष । उन्होंने हाव-भाव अंगविन्यास एवं सौन्दर्य का उन्मुक्त प्रदर्शन किया, पर अनिमेषदृष्टि महावीर तो उसी प्रकार स्थिर खड़े रहे। इस प्रकार एक ही रात्रि में बीस महान उपसर्ग महावीर पर आये, पर संकल्प के धनी महावीर अपनी स्थिति से, अपनी नासाग्रदृष्टि से एक तिल-भर भी डिगे नहीं । दुष्ट संगम का अहंकार चूर-चूर हो गया, उसकी उपद्रवी बुद्धि कुंठित हो गई तथा लज्जा और ग्लानि से वह मन-ही-मन कट गया । प्रातःकाल का बाल-सूर्य निकला, महावीर ने अपनी ध्यानसाधना पूर्ण की और वे उस स्थान से आगे चल पड़े। उनके मुख पर वही प्रसन्नता, सौम्यता और ताजगी झलक रही थी, जो उपसा की पूर्व संध्या में थी, वे तो देह में रहते हुये भी देहातीत थे, प्राण-अपान पर विजय पा चुके थे, संत्रास, भय और मोह उनकी योग-चेतना को कैसे चंचल बना सकते थे ? तन की वेदना का दर्द मन तक पहुंच ही नहीं पाया था।' फांसी के तख्ते पर एक रात्रि में बीस प्राणघातक असह्य उपद्रवों से जूझकर भी प्रातःकाल होते-होते उसी नई ताजगी और प्रफुल्लता के साथ आगे कदम बढ़ा देना-सचमुच एक आश्चर्यजनक प्रसंग है। ___ संगम ने जब प्रातः महावीर की सौम्य मुख-मुद्रा को प्रसन्नता से महकती, नव-कुसुम की भांति खिली हुई देखी तो वह अपनी मूर्खता एवं असफलता पर दांत काटकर रह गया । सोचा होगा, रातभर के उपद्रवों का इनके मन पर तो तिलभर भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो अब साथ-साथ रहकर धीरे-धीरे इन्हें संत्रास दूंगा। १ (क) घटनावर्ष वि. पू. ५०२-५०१ (ब) बावश्यक नियुक्ति गापा ३९२, (ग) विषष्टिः १०४
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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