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तत्त्वार्थ वृत्ति-प्रस्तावना दिति ।" अर्थात्-'हाथरहित अमूर्त आत्मा कैसे कर्म ग्रहण करता है' इस शंका का उत्तर है 'जीव' पदका ग्रहण । प्राणधारण और आयुःसंबंधके कारण जीव बना हुआ आत्मा कर्म ग्रहण करता है, आयुसम्बन्धसे रहित होकर सिद्ध अवस्थामें नहीं। यहां श्रुतसागरसूरि 'नायुविरहात्' वाले अंशको इस रूपमें लिखते हैं"आयुःसम्बन्धविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादत्ते जीवः एक द्वौ त्रीन् वानाहारक इति वचनात् ।” अर्थात्-आयुसम्बन्धके बिना जीव अनाहारक रहता है और वह एक दो तीन समय तक कर्मको ग्रहण नहीं करता क्योंकि एक दो तीन समय तक अनाहारक रहता है ऐसा कथन है । यहां कर्मग्रहणकी बात है, पर श्रुतसागरसूरि उसे नोकर्म ग्रहणरूप आहारमें लगा रहे हैं, जिसका कि आयुसम्बन्धविरहसे कोई मेल नहीं है। संसार अवस्थामें कभी भी जीव आयुसंबंधसे शून्य नहीं होता। विग्रहगतिमें भी उसके आयुसंबंध होता ही है। - (३) सर्वार्थसिद्धि (८२)में ही 'सः' शब्दकी सार्थकता इसलिए बताई गई है कि इससे गुणगुणिबन्धकी निवृत्ति हो जाती हैं। नैयायिकादि शुभ अशुभ क्रियाओंसे आत्मामें ही 'अदृष्ट' नामके गुणकी उत्पत्ति मानते हैं उसीसे आगे फल मिलता है । इसे ही बन्ध कहते हैं । दूसरे शब्दोंमें यही गुणगुणिबन्ध कहलाता है । आत्मा गुणीमें अदृष्ट नामके उसीके गुणका सम्बन्ध हो गया। इसका व्याख्यान श्रुतसागरसूरि इस प्रकार करते हैं
"तेन गुणगुणिबन्धो न भवति । यस्मिन्नेव प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिक न भवति किंतु अपरत्रापि प्रसरति ।" अर्थात्-इसलिए गुणगुणिबन्ध-गुणका गुणिके प्रदेशों तक सीमत रहना नहीं होता। जिस प्रदेशमें जीव है उसी प्रदेशमें ही केवल ज्ञानादि नहीं रहते किन्तु वह अन्यत्र भी फैलता है। यहां, गुणगुणिबन्धका अनोखा ही अर्थ किया है, और यह दिखानेका प्रयत्न किया है कि गुणी चाहे अल्पदेशोंमें रहे पर गुण उसके साथ बद्ध नहीं है वह अन्यत्र भी जा सकता है । जो स्पष्ट तः सिद्धांतसमर्थित नहीं है। ... (४) पृ० २७० १० ११ में एकेन्द्रियके भी असंप्राप्तासृपाटिका संहननका विधान किया है।
(५) पृ० २७५. में सर्व मुलप्रकृतियोंके अनुभागको स्वमुखसे विपाक मानकर भी 'मतिज्ञानावरणका मतिज्ञानावरणरूप से ही विपाक होता है' यह उत्तरप्रकृतिका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है ।
(६) पृ० २८१में गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा ह कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पहुँचनेवाला जीव प्रथमप्रथमोपशम सम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है । जो सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि प्रथमोशमसम्यक्त्वमें दर्शनमोहनीय की केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार इस तरह पांच प्रकृतियोंके उपशमसे ही प्रथमोशम सम्यक्त्व बताया गया है। सातका उपशम तो जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है उन जीवोंके दुबारा प्रथमोशमके समय होता है।
(७) आदाननिक्षेपसमितिमें--मयूरपिच्छ के अभावमें वस्त्रादिके द्वारा प्रतिलेखनका विधान किया गया है, यह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है ।
(८) सूत्र ८१४७ में द्रव्यलिंगकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने असमर्थ मुनियोंको अपवादरूपसे वस्त्रादिग्रहण इन शब्दोमें स्वीकार किया है
. "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृहणन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्याना माराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । 'उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्बलवान्' इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः।"
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