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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थकार अर्थात् भगवती आराधनाके अभिप्रायानुसार असमर्थ या दोषयुक्त शरीरवाले साधु शीतकालमें वस्त्र ले लेते हैं, पर वे न तो उसे धोते हैं न सीते हैं और न उसके लिए प्रयल ही करते हैं, दूसरे समय में उसे छोड़ देते हैं। उत्सर्गलिंग तो अचेलकता है पर आर्या असमर्थ और दोषयुक्त शरीरवालोंकी अपेक्षा अपवादलिंगमें भी दोष नहीं है। भगवती आराधना (गा० ४२१) की अपराजितसूरिकृत विजयोदया टीकामें कारणापेक्ष यह अपवादमार्ग स्वीकार किया गया है। इसका कारण स्पष्ट है कि अपराजितसूरि यापनीयसंघके आचार्य थे और यापनीय आगमवाचनाओंको प्रमाण मानते थे। उन आगमोंमें आए हुए उल्लेखोंके समन्वयके लिए अपराजितसूरिने यह व्यवस्था स्वीकार की है। परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे, वे कैसे इस चक्करमें आ गये ? भाषा और शैली-तत्त्वार्थवृत्तिकी शैली सरल और सुबोध है । प्रत्येक स्थानमें नूतन पर सुमिल शब्दोंका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । सैद्धान्तिक बातोंका खुलासा और दर्शनगुत्थियोंके सुलझानेका प्रयत्न स्थान स्थान पर किया गया है। भाषाके ऊपर तो श्रुतसागरसूरिका अद्भुत अधिकार है । जो क्रिया एक जगह प्रयुक्त है वही दूसरे वाक्यमें नहीं मिल सकती। प्रमाणोंको उद्धृत करनेमें तो इनके श्रुतसागरत्वका पूरा पूरा परिचय मिल जाता है । इस वृत्ति में निम्नलिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका उल्लेख नाम लेकर किया गया है । अनिदिष्टकर्तृक गाथाएँ और श्लोक भी इस वृत्तिमें पर्याप्त रूपमें संगहीत हैं। इस वृत्तिमें उमास्वामी (उमास्वाति भी) समन्तभद्र पूज्यपाद अकलंकदेव विद्यानन्दि प्रभाचन्द्र नेमिचन्द्रदेव योगीन्द्रदेव मतिसागर देवेन्द्रकीर्तिभट्टारक आदि ग्रन्थकारोंके तथा सर्वार्थसिद्धि राजवातिक अष्टसहस्री भगवतीआराधना संस्कृतमहापुराणपंजिका प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंके नामोल्लेख है। इनके अतिरिक्त सोमदेवके यशस्तिलकचम्पू आशाघरके प्रतिष्ठापाठ बसुनन्दिश्रावकाचार आत्मानशासन आदिपुराण त्रिलोकसार पंचास्तिकाय प्रवचनसार नियमसार पंचसंग्रह प्रमेयकमलमार्तण्ड बारसअणुवेक्खा परमात्मप्रकाश आराधनासार गोम्मटसार बृहत्स्वयंभूस्तोत्र रत्नकरण्डश्रावकाचार श्रुतभक्ति पुरुषार्थसिद्धयुपाय नीतिसार द्रव्यसंग्रह कातन्त्रसूत्र सिद्धभक्ति हरिवंशपुराण षड्दर्शनसमुच्चय पाणिनिसूत्र इष्टोपदेश न्यायसंग्रह ज्ञानार्णव अष्टांगहृदय द्वात्रिंशद्वात्रिंशतिका शाकटायनव्याकरण तत्त्वसार सागारधर्मामृत आदि ग्रथोंके श्लोक गाथा आदि उद्धृत किये गये हैं। इस प्रकार यह वृत्ति अतिशयपाण्डित्यपूर्ण और प्रमाणसंग्रहा है। श्रुतसागरसूरिने इसे सर्वोपयोगी बनाने का पूरा पूरा प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार इस विभागमें सूत्रकार उमास्वामी और वृत्तिकारके समय आदिका परिचय कराना अवसरप्राप्त है। सूत्रकार उमास्वामीके संबंधमें अनेक विवाद है--वे किस आम्नायके थे ? क्या तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जाने वाली प्रशस्ति उनकी लिखी है ? क्या तत्त्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ नहीं है ? मूल सूत्रपाठ कौन है ? वे कब हुए थे ? आदि। इस संबंधमें श्रीमान् पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनामें पर्याप्त विवेचन किया है और उमास्वामीको श्वे० परम्पराका बताया है, तत्त्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ है और उसकी प्रशस्तिमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं है। इनने उमास्वामीके समयको अवधि विक्रमकी दूसरीसे पांचवीं सदी तक निर्धारित की है। . श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने भारतीय विद्याके सिंघी स्मति अंकमें "उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र और उनका सम्प्रदाय" शीर्षक लेखमें उमास्वातिको यापनीय संघका आचार्य सिद्ध किया है। इसके प्रमाणमें उनने मैसूरके नगरतालुके ४६ नं०के शिलालेखमें आया हुआ यह श्लोक उद्धृत किया है For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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