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नय निरूपण
नय-विचार व्यवहार साधारणतया तीन भागोंमें बाँटे जा सकते हैं-१ ज्ञानाश्रयी, २ अर्थाश्रयी, ३ शब्दाश्रयी । अनेक ग्राम्य व्यवहार या लौकिक व्यवहार संकल्पके आधारसे ही चलते हैं। जैसे रोटी बनाने या कपड़ा बुननेकी तैयारी के समय रोटी बनाता हूँ, कपड़ा बुनता हूँ, इत्यादि व्यवहारोंमें संकल्पमात्रमें ही रोटी या कपड़ा व्यवहार किया गया है । इसी प्रकार अनेक प्रकार के औपचारिक व्यवहार अपने ज्ञान या संकल्पके अनुसार हुआ करते हैं। दूसरे प्रकारके व्यवहार अर्थाश्रयी होते हैं-अर्थमें एक ओर एक नित्य व्यापी और सन्मात्ररूपसे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है तो दूसरी ओर क्षणिकत्व परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी। इन दोनों अन्तोंके बीच अनेक अवान्तर भेद और अभेदोंका स्थान है । अभेद कोटि औपनिषद अद्वैतवादियोंकी है। दूसरी कोटि वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिकनिरंश-परमाणुवादी बौद्धोंकी है । तीसरी कोटिमें पदार्थको अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि दर्शन हैं। तीसरे प्रकारके शब्दाश्रित व्यवहारोंमें भिन्न कालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भिन्न पर्यायवाले, और विभिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थको या अर्थकी एक पर्यायको नहीं कह सकते । शब्दभेदसे अर्थभेद होना ही चाहिए । इस तरह इन ज्ञान अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वयके लिए नयदृष्टियोंका उपयोग है।
इसमें संकल्पाधीन यावत् ज्ञानाश्रित व्यवहारोंके ग्राहक नैगमनयको संकल्पमात्रग्राही बताया है । तत्त्वार्थभाष्यमें अनेक ग्राम्य व्यवहारोंका तथा औपचारिक लोकव्यवहारोंका स्थान इसी नयकी विषयमर्यादा में निश्चित किया है।
___ आ० सिद्धसेनने अभेदग्राही नगमका संग्रहनयमें तथा भेदग्राही नगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे नगमको संकल्पमात्रग्राही मानकर अर्थग्राही स्वीकार करते हैं। अकलङ्कदेवने यद्यपि राजवातिकमें पूज्यपादका अनुसरण करके नैगमनयको संकल्पमात्रग्राही लिखा है फिर भी लघीयस्त्रय (का० ३९) में उन्होंने नैगमनयको अर्थके भेदको या अभेदको ग्रहण करनेवाला भी बताया है। इसीलिए इन्होंने स्पष्ट रूपसे नंगम आदि ऋजुसूत्रान्त चार नयोंको अर्थनय माना है ।
अर्थाश्रित अभेदव्यवहारका, जो "आत्मैवेदं सर्वम्" आदि उपनिषद्वाक्योंसे व्यक्त होता है, परसंग्रहनयमें अन्तर्भाव होता है। यहाँ एक बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि जैनदर्शनमें दो या अधिक द्रव्योंमें अनुस्यूत सत्ता रखनेवाला कोई सत् नामका सामान्यपदार्थ नहीं है। अनेक द्रव्योंका सद्रूपसे जो संग्रह किया जाता है वह सतसादश्यके निमित्तसे ही किया जाता है न कि सदेकत्वकी दृष्टिसे । हां, सदेकत्वकी दृष्टिसे प्रत्येक सत्की अपनी क्रमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है, पर दो सत्म अनुस्यूत कोई एक सत्त्व नहीं है। इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होनेवाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंका व्यवहारनयमें समावेश होता है । इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं । अर्थकी अन्तिम देशकोटि परमाणुरूपता तथा चरमकालकोटि क्षणमात्रस्थायिताको ग्रहण करनेवाली बौद्ध दृष्टि ऋजुसूत्रकी परिधिमें आती है । यहाँतक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेद ग्रहण करनेवाले अभिप्राय बताये गये हैं। इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है।
काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न भिन्न उपसर्ग आदिकी दृष्टि से प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भी भिन्न भिन्न है, इस कालादिभेदसे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है। एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं ; इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूढनय है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियावाची हैं। गुणवाचक शुक्लशब्द भी शुचिभवन
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