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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना है तो कहीं ज्ञानसे तो कहीं अर्थसे । बच्चेको डराने के लिए शेर शब्द पर्याप्त है । शेरका ध्यान करनेके लिए शेरका ज्ञान भी पर्याप्त है । पर सरकसमें तो शेर पदार्थ ही चिंघाड़ सकता है। - विवेचनीय पदार्थ जितने प्रकारका हो सकता है उतने सब संभावित प्रकार सामने रखकर अप्रस्तुतका निराकरण करके विवक्षित पदार्थको पकड़ना निक्षेप है । तत्त्वार्थसूत्रकारने इस निक्षेपको चार भागोंमें बाँटा है-शब्दात्मक व्यवहारका प्रयोजक नामनिक्षेप है, इसमें वस्तुम उस प्रकारके गुण जाति क्रिया आदिका होना आवश्यक नहीं है जैसा उसे नाम दिया जा रहा है। किसी अन्धेका नाम भी नयनसुख हो सकता है और किसी सूखकर काँटा हुए दुर्बल व्यक्तिको भी महावीर कहा जा सकता है। ज्ञानात्मक व्यवहारका प्रयोजक स्थापना निक्षेप है। इस निक्षेपमें ज्ञानके द्वारा तदाकार या अतदाकार में विवक्षित वस्तूकी स्थापना कर ली जाती है और संकेत ज्ञानके द्वारा उसका बोध करा दिया जाता है । अर्थात्मक निक्षेप द्रव्य और भावरूप होता है । जो पर्याय आगे होनेवाली है उसमें योग्यताके बलपर आज भी वह व्यवहार करना अथवा जो पर्याय हो चुकी है उसका व्यवहार वर्तमानमें भी करना द्रव्यनिक्षेप है जैसे युवराजको राजा कहना और राजपदका जिसने त्याग कर दिया है उसको भी राजा कहना । वर्तमानमें उस पर्यायवाले व्यक्तिमें ही वह व्यवहार करना भावनिक्षेप है, जैसे सिंहासनस्थित शासनाधिकारीको राजा कहना । आगमोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिको मिलाकर यथासंभव पांच, छह और सात निक्षेप भी उपलब्ध होते हैं परन्तु इस निक्षेपका प्रयोजन इतना ही है कि शिष्यको अपने विवक्षित पदार्थका ठीक ठीक ज्ञान हो जाय । धवला टीकामें ( पृ० ३१ ) निक्षेपके प्रयोजनोंका संग्रह करनेवाली यह प्राचीन गाथा उधत है-- "अवगनिवारणठं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणठें तच्चत्यवधारणटुं च ॥" अर्थात्-अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए, प्रकृतका निरूपण करनेके लिए, संशयका विनाश करनेके लिए और तत्त्वार्थका निर्णय करनेके लिए निक्षेपकी उपयोगिता है। प्रमाण, नय और स्याद्वाद-निक्षेप विधिसे वस्तुको फैलाकर अर्थात् उसका विश्लेषण कर प्रमाण और नयके द्वारा उसका अधिगम करनेका क्रम शास्त्रसम्मत और व्यवहारोपयोगी है। ज्ञानकी गति दो प्रक रसे वस्तुको जाननेकी होती है । एक तो अमुक अंशके द्वारा पूरी बस्तुको जाननेकी और दूसरी उसी अमक अंशको जाननेकी । जब ज्ञान पूरी वस्तुको ग्रहण करता है तब वह प्रमाण कहा जाता है तथा जब वह एक अंशको जानता है तब नय । पर्वतके एक भागके द्वारा पूरे पर्वतका अखण्ड भावसे ज्ञान प्रमाण है और उसी अंश का ज्ञान नय है। सिद्धान्तमें प्रमाणको सकलादेशी तथा नयको विकलादेशी कहा है उसका यही तात्पर्य है कि प्रमाण ज्ञात वस्तुभागके द्वारा सकल वस्तुको ही ग्रहण करता है जब कि नय उसी विकल अर्थात् एक अंशको ही ग्रहण करता है। जैसे आंखसे घटके रूपको देखकर रूपमुखेन पूर्ण घटका ग्रहण करना सकलादेश है और घटम रूप है इस रूपांशको जानना विकलादेश अर्थात् नय है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुका य वत् विशेषोंके साथ संपूर्ण रूपसे ग्रहण करना तो अल्पज्ञानियोंके वशकी बात नहीं है वह तो पूर्ण ज्ञानका कार्य हो सकता है । पर प्रमाणज्ञान तो अल्पज्ञानियोंका भी कहा जाता है अतः प्रमाण और नय की भेदक रेखा यही है कि जब ज्ञान अखंड वस्तु पर दृष्टि रखे तब प्रमाण तथा जब अंशपर दृष्टि रखे तब नय । वस्तुमें सामान्य और विशेष दोनों प्रकारके धर्म पाए जाते हैं । प्रमाण ज्ञान सामान्यविशेषात्मक पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है जब कि नय केवल सामान्य अंशको या विशेष अंशको । यद्यपि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप वस्तु नहीं है पर नय बस्तुको अंशभेद करके ग्रहण करता है । वक्ताके अभिप्रायविशेषको ही नय कहते हैं। नय जब विवक्षित अंशको ग्रहण करके भी इतर अंशोंका निराकरण नहीं करता उनके प्रति तटस्थ रहता है तब सुनय कहलाता है और जब वही एक अंशका आग्रह करके दूसरे अंशोंका निराकरण करने लगता है तब दुर्नय कहलाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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