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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [९/४७ पुलाक आदि मुनियों में विशेषतासंयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः॥ ४७ ।। संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ अनुयोगोंके द्वारा पुलाक आदि मुनियोंमें परस्पर विशेषता पाई जाती है। पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन मुनियोंके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होते हैं । कषायकुशीलके यथाख्यात चारित्रको छोड़कर अन्य चार चारित्र होते हैं। निम्रन्थ और स्नातकके यथाख्यातचारित्र होता है। उत्कृष्टसे पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनि अभिन्नाक्षर दशपूर्वके शाता होते हैं। अभिन्नाक्षरका अर्थ है-जो एक भी अक्षरसे न्यून न हो। अर्थात् उक्त मुनि दश पूर्व के पूर्ण ज्ञाता होते हैं । कषायकुशील और निम्रन्थ चौदह पूर्वके ज्ञाता होते हैं । जघन्यसे पुलाक आचार शास्त्रका निरूपण करते हैं। बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ आठ प्रवचन मातृकाओंका निरूपण कहते हैं। पाँच समिति और तीन गुप्तियोंको आठ प्रवचन मातृका कहते हैं । स्नातकोंके केवलज्ञान होता है, श्रुत नहीं होता । ब्रतों में दोष लगनेको प्रतिसेवना कहते हैं। पुलाकके पाँच महाव्रतों और रात्रि भोजन त्याग व्रतमें विराधना होती है। दूसरेके उपरोधसे किसी एक व्रत की प्रतिसेवना होती है । अर्थात् वह एक व्रतका त्याग कर देता है। प्रश्न-रात्रिभोजन त्यागमें विराधना कैसे होती है ? उत्तर-इसके द्वारा श्रावक आदिका उपकार होगा ऐसा विचारकर पुलाक मुनि विद्यार्थी आदिको रात्रिमें भोजन कराकर रात्रिभोजनत्याग व्रतका विराधक होता है। बकुशके दो भेद हैं-उपकरण बकुश और शरीरबकुश । उपकरणबकुश नाना प्रकारके संस्कारयुक्त उपकरणोंको चाहता है और शरीरबकुश अपने शरीरमें तेलमर्दन आदि संस्कारोंको करता है यही दोनोंकी प्रतिसेवना है। प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणोंकी विराधना नहीं करता है किन्तु उत्तर गुणोंकी विराधना कभी करता है इसकी यही प्रतिसेवना है। कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकके प्रतिसेवना नहीं होती है । ये पाँचों प्रकार के मुनि सब तीर्थंकरों के समयमें होते हैं । लिङ्गके दो भेद हैं-द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग । पाँचों प्रकारके मुनियों में भावलिङ्ग समान रूपसे पाया जाता हैं। द्रव्यलिङ्गकी अपेक्षा उनमें निम्न प्रकारसे भेद पाया जाता है। 'कोई असमर्थ मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल आदि वस्त्रों को ग्रहण कर लेते हैं लेकिन उस वस्त्रको न धोते हैं और न फट जाने पर सीते हैं तथा कुछ समय बाद उसको छोड़ देते हैं। कोई मुनि शरीरमें विकार उत्पन्न होनेसे लज्जाके कारण वस्त्रोंको ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकारका व्याख्यान भगवती आराधनामें अपवाद रूपसे बतलाया है । इसी आधारको मानकर कुछ लोग मुनियों में सचेलता ( वस्त्र पहिरना) मानते हैं। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है । कभी किसी मुनिका वसधारण कर लेना तो केवल अपवाद है उत्सर्गमार्ग तोअचेलकता ही है और वही साक्षात् मोक्षका कारण होती है। उपकरणकुशील मुनिकी अपेक्षा अपवाद मार्गका व्याख्यान किया गया है अर्थात् उपकरणकुशील मुनि कदाचित् अपवाद मार्ग पर चलते हैं। पुलाकके पोत, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएँ होती हैं । बकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके छहों लेश्यायें होती हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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