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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९।४६ ] नवम अध्याय ५०३ कोई जीव बहुत काल तक एकेन्द्रिय और विकलत्रय पर्यायों में जन्म लेने के बाद पञ्चेन्द्रिय होकर काल afoध श्रादिकी सहायता से अपूर्वकरण आदि विशुद्ध परिणामों को प्राप्त कर पहिलेकी अपेक्षा कमकी अधिक निर्जरा करता है। वही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर पहिले से असंख्यातगुणी निर्जराको करता है। वही जीव अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम करके श्रावक होकर पहिलेसे असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही जीव प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम करके विरत होकर पहिले से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । वही जीव अनन्तानुबन्धी चार कषायका विसंयोजन (अनन्तानुबन्धी कपायको I प्रत्याख्यान आदि कषाय में परिणत करना) करके पहिले से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही जीव दर्शनमोहकी प्रकृतियोंको क्षय करनेकी इच्छा करता हुआ परिणामोंकी विशुद्धिको प्राप्त कर पहिलेसे असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही जीव क्षायिक सम्यष्ट होकर श्रेणी चढ़ने के अभिमुख होता हुआ चारित्र मोहका उपशम करके पहिले से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । वही जीव सम्पूर्ण चारित्रमोहके उपशम करनेके निमित्त मिलने पर उपशान्तकषाय नामको प्राप्त कर पहिलेसे असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही ata चारित्रमोहके क्षय करने में तत्पर होकर क्षपक नामको प्राप्त कर पहिले से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । वही जीव सम्पूर्ण चारित्रमोहको क्षय करनेवाले परिणामोंको प्राप्तकर क्षीणमोह होकर पहिले से असंख्यातगुणी निर्जराको करता है । और वही जीव घातिया कर्मों का नाश करके जिन संज्ञाको प्राप्त कर पहिलेसे असंख्यातगुणी निर्जराको करता है । निर्ग्रन्थों के भेद पुलाकबकुशकुशील निर्ग्रन्थस्नातक निर्ग्रन्थाः || ४६ ॥ पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये साधुओं के पाँच भेद हैं । जो उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित हों तथा जिनके मूल गुणों में भी कभी कभी दोष लग जाता हो उनको पुलाक कहते हैं। पुलाकका अर्थ है मल सहित तण्डुल । पुलाकके समान कुछ दोषसहित होने से मुनियों को भी पुलाक कहते हैं । जो मूलगुणों का निर्दोष पालन करते हैं लेकिन शरीर और उपकरणोंकी शोभा बढ़ानेको इच्छा रखते हैं और परिवार में मोह रखते हैं उनको बकुश कहते हैं। बकुशका अथ है शव (चितकबरा ) । कुशील के दो भेद हैं- प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जो उपकरण तथा शरोर आदि से पूर्ण विरक्त न हों तथा जो मूल और उत्तर गुणोंका निर्दोष पालन करते हों लेकिन जिनके उत्तर गुणोंकी कभी कभी विराधना हो जाती हो उनको प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं । अन्य कषायों को जीत लेनेके कारण जिनके केवल संज्वलन कषायका ही उदय हो उनको कषायकुशील कहते हैं । जिस प्रकार जल में लकड़ीकी रेखा अप्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकट हो और जिनको अन्तर्मुहूर्त में केवल ज्ञान उत्पन्न होने वाला हो उनको निर्ग्रन्थ कहते हैं । घातिया कर्मोंका नाश करने वाले केवली भगवान्‌को स्नातक कहते हैं । यद्यपि चारित्र के तारतम्यके कारण इनमें भेद पाया जाता है लेकिन नैगम आदि नय की अपेक्षा से इन पाँचो प्रकार के साधुओं को निर्ग्रन्थ कहते है । For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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