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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ९।२५-२६ तोको करते हैं वे तपस्वी हैं । शास्त्रोंके अध्ययन करनेमें तत्पर मुनियोंको शैक्ष्य कहते हैं। रोग आदिसे जिसका शरीर पीड़ित हो उस. मुनिको ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियों के समूहको गण कहते हैं। दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्यों के समूहको कुल कहते हैं। ऋषि, मुनि यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियोंके समूहको संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओं के समूहको संघ कहते हैं। जो चिरकालसे दीक्षित हो उसको साधु कहते हैं । वक्तृत्व आदि गुणोंसे शोभित और लोगों द्वारा प्रशंसित मुनिको मनोज्ञ कहते हैं । इस प्रकारके असंयत सम्यग्दृष्टिको भी मनोझं कहते हैं। इन दश प्रकार के मुनियोंको व्याधि होनेपर प्रासुक, औषधि,भक्तपान आदि पध्यवस्तु, स्थान और संस्तरण आदि के द्वारा उनकी वैयावृत्ति करना चाहिये । इसी प्रकार धर्मोपकरणों को देकर, परीषहोंका नाश कर, मिथ्यात्व आदिके होनेपर सम्यक्त्वमें स्थापना करके तथा बाह्य वस्तुके न होनेपर अपने शरीरसे ही श्लेष्म आदि शरीरमलको पोंछ करके वैयावृत्ति करनी चाहिये । वैयावृत्य करनेसे समाधिकी प्राप्ति, ग्लानिका अभाव और प्रवचन वात्सल्य आदि की प्रकटता होती है। स्वाध्यायके भेदवाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५ ॥ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्यायके पाँच भेद हैं। फलकी अपेक्षा न करके शास्त्र पढ़ना शास्त्रका अर्थ कहना और अन्य जीवोंके लिये शास्त्र और अर्थ दोनोंका व्याख्यान करना वाचना है। संशयको दर करनेके लिये अथवा निश्चयको दृढ़ करनेके लिये ज्ञात अर्थको गुरुसे पूछना पृच्छना है । अपनी उन्नति दिखाने, पर प्रतारण, उपहास आदिके लिये की गई पृच्छना संवरका कारण नहीं होती है। ____एकाग्र मनसे जाने हुए अर्थका बार बार अभ्यास या विचार करना अनुप्रेक्षा है । शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं। दृष्ट और अदृष्ट फलकी अपेक्षा न करके असंयमको दूर करनेके लिये, मिथ्यामार्गका नाश करनेके लिये और आत्माके कल्याण के लिये धर्मकथा आदिका उपदेश करना धर्मोपदेश है। स्वाध्याय करनेसे बुद्धि बढ़ती है,अध्यवसाय प्रशस्त होता है, तपमें वृद्धि होती है। प्रवचनकी स्थिति होती है,अतीचारोंकी शुद्धि होती है । संशयका नाश होता है, मिथ्यावादियोंका भय नहीं रहता है और संवेग होता है। __व्युत्सर्गके भेद बाह्याभ्यन्तरोषध्योः ॥ २६ ॥ बाह्योपधि व्युत्सर्ग और श्राभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग ये दो व्युत्सर्ग हैं। धन, धान्य आदि बाह्यपरिग्रहका त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है और काम, क्रोध, आदि आत्माके दुष्ट भावोंका त्याग करना आभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग है । नियत काल तक अथवा यावज्जीवनके लिये शरीरका त्याग कर देना सो भी आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। व्युत्सर्गसे निर्ममत्व, निर्भयता, दोषोंका नाश, जीनेकी आशाका नाश और मोक्षमार्गमें तत्परता आदि होती हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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