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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९।२३-२४ ] नवम अध्याय आलोचना आदि किन किन दोषोंके करने पर किये जाते हैं.. आचार्यसे बिना पूछे आतापन आदि योग करने पर, पुस्तक पीछी आदि दूसरोंके उपकरण लेने पर, परोक्षमें प्रमादसे आचार्यकी आज्ञाका पालन नहीं करने पर, आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामको चले जाकर आनेपर, दूसरे संघसे बिना पूछे अपने संघमें आ जाने पर, नियत देश कालमें करने योग्य कार्यको धर्मकथा आदिमें व्यस्त रहनेके कारण मूल जाने पर कालान्तरमें करने पर आलोचना की जाती है। छह इन्द्रियोंमें से वचन आदि की दुष्प्रवृत्ति होनेपर, आचार्य आदिसे हाथ, पैर आदिका संघट (रगड़)होजाने पर, व्रत, समिति और गुप्तियों में स्वल्प अतिचार लगनेपर, पैशुन्य, कलह आदि करने पर, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदिमें प्रमाद करने पर, कामविकार होने पर और दूसरोंको संक्लेश आदि देनेपर प्रतिक्रमण किया जाता है। दिन और रात्रिके अन्तमें भोजन गमन आदि करने पर, केशलोंच करने पर, नखोंका छेद करने पर, स्वप्नदोष होने पर, रात्रिभोजन करने पर और पक्ष, मास, चार मास, वर्ष पर्यन्त दोष करने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों होते हैं। मौनके बिना केशलोच करनेमें, पेटसे कीड़े निकलनेपर, हिमपात मच्छर या प्रचण्ड वायुसे संघर्ष होने पर, गीली भूमि पर चलने पर, हरे घास पर चलने पर, कीचड़में चलने पर, जकातक जलमें घुसने पर, दुसरेकी वस्तुको अपने काममें लेने पर, नाव आदिसे नदी पार करने पर, पुस्तकके गिर जानेपर, प्रतिमाके गिर जाने पर, स्थावर जीवोंके विधात होने पर, बिना देखे स्थानमें शौच आदि करने पर, पाक्षिक प्रतिक्रमण व्याख्यान आदि क्रियाओं के अन्त में, अनजानमें मल निकल जाने पर व्युत्सर्ग किया जाता है । इसी प्रकार तप, छेद श्रादि करनेके विषयमें आगमसे ज्ञान कर लेना चाहिये । नव प्रकारके प्रायश्चित्त करनेसे भावशुद्धि, चञ्चलताका अभाव, शल्यका परिहार और धर्ममें दृढ़ता आदि होती है। विनयके भेद ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ये चार विनय हैं। आलस्य रहित होकर, देश काल भाव आदि की शुद्धिपूर्वक, विनय सहित मोक्षके लिये यथाशक्ति ज्ञानका ग्रहण, स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है। तत्त्वोंके श्रद्धानमें शंका, कांक्षा आदि दोषोंका न होना दर्शनविनय है। निर्दोष चारित्रका स्वयं पालन करना और चारित्र धारक पुरुषोंकी भक्ति आदि करना चारित्रविनय है। आचार्य, उपाध्याय, आदिको देखकर खड़े होना, नमस्कार करना तथा उनके परोक्षमें परोक्ष विनय करना, उनके गुणोंका स्मरण करना आदि उपचार विनय है । विनयके होने पर मानलाभ, आहारविशुद्धि सम्यगाराधना आदि होती है। वैयावृत्त्यके भेद-- आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्घसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियोंकी सेवा करना सो दश प्रकारका वैयावृत्त्य है। : जो स्वयं व्रतोंका आचरण करते हैं और दूसरोंको कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं। जिनके पास शाखोंका अध्ययन किया जाता है वे ‘उपाध्याय हैं। जो महोपयास आदि For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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