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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७१०-११ अब्रह्मचारी पुरुष मदोन्मत्त होता हुआ कामके वश होकर वध बन्धन आदि दुःखों को प्राप्त करता है, मोह या अज्ञानके कारण कार्य और अकार्यको नहीं समझता है और स्त्रीलम्पट होनेसे दान, पूजन, उपवास आदि कुछ भी पुण्य कर्म नहीं करता है । परस्त्रीमें अनुरक्त पुरुष इस लोकमें लिङ्गछेदन, वध, बन्धन, सर्वस्वहरण आदि दुःखोंको प्राप्त करता है और मरकर नरकादि गतियोंके दुःखोंको भोगता है। लोगों द्वारा निन्दित भी होता है अतः कुशीलसे विरक्त होना ही शुभ है। परिग्रहवाला पुरुष परिग्रहको चाहनेवाले चोर आदिके द्वारा अभिभूत होता है जैसे मांसपिण्डको लिये हुए एक पक्षी अन्य पक्षियों के द्वारा । वह परिग्रहके उपार्जन, रक्षण और क्षयके द्वरा होनेवाले बहुतसे दोषोंको प्राप्त करता है। इन्धनके द्वारा वहिकी तरह धनसे उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। लोभके कारण वह कार्य और अकार्यको नहीं समझता। पात्रोंको देखकर किवाड़ बन्द कर लेता है, एक कौड़ी भी उन्हें नहीं देना चाहता। पात्रोंको केवल धक्के ही देता है। वह मरकर नरकादि गतियोंके घोर दुखांको प्राप्त करता है और लोगों द्वारा निन्दित भी होता है। इसलिये परिग्रहके त्याग करने में ही कल्याण है। इस प्रकार हिंसादि पाँच पापोंके विषयमें विचार करना चाहिये । दुःखमेव वा ॥ १०॥ अथवा ऐसा विचार करना चाहिये कि हिंसादिक दुःखरूप ही हैं । हिंसादि पाँच पापोंको दुःखका कारण होनेसे दुःखरूप कहा गयाहै जैसे "अन्नं वै प्राणाः"यहाँ अन्नको प्राणका कारण होनेसे प्राण कहा गया है। अथवा दुःखका कारण असातावेदनीय है । असातावेदनीयका कारण हिंसा दि हैं । अतः दुखके कारणका कारण होनेसे हिंसादिकको दुःखस्वरूप कहा गया है, जैसे : "धनं वै प्राणाः" यहाँ प्राणके कारण भूत अन्नका कारण होनेसे धनको प्राण कहा गया है। ___ यद्यपि विषयभोगोंसे सुखका भी अनुभव होता है लेकिन वास्तवमें यह सुख सुख नहीं है, केवल वेदनाका प्रतिकार है जैसे खाजको खुजलानेसे थोड़े समयके लिये सुखका अनुभव होता है। अन्य भावनाएँ-- . मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥ ११ ॥ प्राणीमात्र, गुणीजन,क्लिश्यमान और अविनयी जीवोंमें क्रमसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका विचार करे। संसारके समस्त प्राणियोंमें मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदनासे दुःख उत्पन्न न होनेका भाव रखना मैत्री भावना है। ज्ञान तप संयम आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषोंको देखकर मुखप्रसन्नता आदिके द्वारा अन्तर्भक्तिको प्रकट करना प्रमोद भावना है। असातावेदनीय कर्मके उदयसे दुःखित जीवोंको देखकर करुणामय भावोंका होना कारुण्य भावना है । जिनधर्मसे पराङ्मुख मिथ्यादृष्टि आदि अविनीत प्राणियों में उदासीन रहना माध्यस्थ्य भावना है। इन भावनाओंके भावनेसे अहिंसादि व्रत न्यून होने पर भी परिपूर्ण हो जाते है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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