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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७-९] सातवाँ अध्याय ४४९ शून्यागारों में और त्यक्त स्थानोंमें रहनेसे परिग्रह आदिमें निस्पृहता होती है। सहधर्मियों के साथ विसंवाद न करनेसे जिनवचनमें व्याघात नहीं होता है। इससे अचौर्यव्रतमें स्थिरता आती है । इसी प्रकार परोपरोधाकरण और भैक्षशुद्धिसे भी इस व्रतमें दृढ़ता आती है। ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाएँस्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहगङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७ ॥ स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग, तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्येटरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग ये ब्रह्मचर्यव्रतको पाँच भावनाएँ हैं। स्त्रियों में राग उत्पन्न करनेवाली कथाओंके सुननेका त्याग स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग है। स्त्रियोंके मनोहर अगोंको देखनेका त्याग तन्मनोहराङ्गानिरीक्षणत्याग है। पूर्वकालमें भोगे हुए विपयोंको स्मरण नहीं करना पूर्वरतानुस्मरणत्याग है। कामवर्धक, वाजीकर और मन तथा रसनाको अच्छे लगनेवाले रसोंको नहीं खाना वृष्येष्टरसत्याग है । अपने शरीरका किसी प्रकारका संस्कार नहीं करना स्वशरीरसंस्कारत्याग है । परिग्रहत्यागवतकी भावनाएँ--- मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥ ८ ॥ स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं करना ये परिग्रहत्यागवतकी पाँच भावनाएँ हैं। हिंसादि पापोंकी भावनाहिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥ ९ ॥ हिंसादि पापोंके करनेसे इस लोक और परलोकमें अपाय और अवद्यदर्शन होता है। अभ्युदय और निःश्रेयसको देनेवाली क्रियाओंके नाशको अथवा सात भयोंको अपाय कहते है और निन्दाका नाम अवद्य है। हिंसा करनेवाला व्यक्ति लोगों द्वारा सदा तिरस्कृत होता है और लोगोंसे वैर भी उसका रहता है । इस लोकमें वध, बन्धन आदि दुःखोंको प्राप्त करता है और मर कर नरकादि गतियों के दुःखोंको भोगता है। इसलिये हिंसाका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। असत्य बोलनेवाले पुरुषका कोई विश्वास नहीं करता है। ऐसे पुरुषकी जिह्वा कान नासिका आदि छेदी जाती है। लोग उससे वैर रखते हैं और निन्दा करते हैं। इसलिये असत्य वचनका त्याग करना ही अच्छा है। चोरी करनेवाला पुरुष चाण्डालोंसे भी तिरस्कृत होता है और इस लोकमें पिटना वध, बन्धन हाथ पैर कान नाक जीभ आदिका छेदन, सर्वस्व हरण, गवेपर बैठाना आदि दण्डोंको प्राप्त करता है । सब लोग उसकी निन्दा करते हैं और वह मरकर नरकादि गतियों के दुःखको प्राप्त करता है । अतः चोरी करना श्रेयस्कर नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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