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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ??? तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [६।२३-२८ चूर्णादिके प्रयोगसे दूसरोंको वशमें करना, मन्त्र आदिके प्रयोगसे दूसरोंको कुतूहल उत्पन्न करना, देव, गुरु आदिकी पूजाके बहानेसे गन्ध, धूप, पुष्प आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना करना, उपहास करना, ईटें पकाना, दावानल प्रज्वलित करना, प्रतिमा तोड़ना, जिनालयका ध्वंस करना, बागका उजाड़ना, तीन क्रोध, मान, माया और लोभ, पाप कमांस आजीविका करना आदि अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं। शुभ नामकर्मके आस्रव तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ योगोंकी सरलता और अविसंवादन ये शुभ नामकर्मके आस्रव हैं । धर्मात्माओंके पास आदरपूर्वक जाना, संसारसे भीरुता, प्रमादका अभाव, पिशुनताका न होना, स्थिरचित्तता, सत्यसाक्षी, परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सत्यवचन, परद्रव्यका हरण न करना, अल्प आरंभ और परिग्रह, अपरिग्रह, कभी कभी उज्ज्वल वेष धारण करना, रूपका मद न होना, मृदुभाषण,शुभवचन, सभ्यभाषण, सहज सौभाग्य,स्वभावसे वशीकरण, दूसरोंको कुतूहल उत्पन्न न करना, विना किसी बहानेके पुष्प, धूप, गन्ध आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना न करना, उपहास न करना, इष्टिकापाक और दावानल न करनेका व्रत, प्रतिमा निर्माण, जिनालयका निर्माण, बागका न उजाड़ना, क्रोध, मान, माया और लोभकी मन्दता पापकर्मोंसे आजीविका न करना आदि शुभ नामकर्मके आस्रव हैं। तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रवदर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतोंमें अतीचार न लगाना, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्ति त्याग और तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य, अहं भक्ति, आचार्यभक्ति, बहश्रतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, और प्रवचनवत्सलता ये तीर्थकर प्रकृतिके आस्रव हैं। दर्शनविशुद्धि-पच्चीस दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शनका नाम दर्शनविशुद्धि है। दर्शनविशुद्धिको पृथक् इसलिये कहा है कि जिनभक्तिरूप या तत्त्वार्थश्रद्धारूप सम्यग्दर्शन अकेला भी तीर्थंकर प्रकृतिका कारण होता है । यशस्तिलकमें कहा भी है कि-"केवल जिनभक्ति भी दुर्गतिके निवारणमें, पुण्य के उपार्जनमें और मोक्ष लक्ष्मीके देने में समर्थ है।" अन्य भावनाएँ सम्यग्दर्शनके विना तीर्थकर प्रकृतिका कारण नहीं हो सकती अतः दर्शनविशुद्धिकी प्रधानता बतलाने के लिये इसका पृथक् निर्देश किया है। दर्शनविशुद्धिका अर्थ-इह लोकभय,परलोकभय,अत्राण य,अगुप्तिभय,मरणभय,वेदनाभय और आकस्मिकभय इन सात भयोंसे रहित होकर जैनधर्मका श्रद्धान करना निःशङ्कित है। इस लोक और परलोकके भोगोंकी आकांक्षा नहीं करना निःकाक्षित है। शरोरादिक पवित्र हैं इस प्रकारकी मिथ्याबुद्धिका अभाव निर्विचिकित्सता है । अर्हन्तको छोड़कर अन्य कुदेवोंके द्वारा उपदिष्ट मार्गका अनुसरण नहीं करना अमूढदृष्टि है । उत्तम क्षमा आदिके For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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