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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४३ ६।२०-२२] छठवाँ अध्याय शील और ब्रतरहित भोगभूमिज जीव ऐशान स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं अतः उक्त जीवोंकी अपेक्षा निःशीलवतित्व देवायुका आस्रव है। कोई अल्पारंभी और अल्प परिग्रही व्यक्ति भी अन्य पापोंके कारण नरक आदिको प्राप्त करते हैं अतः ऐसे जीवोंकी अपेक्षा अल्पारंभ-परिग्रह भी नरक आयुका आस्रव होता है। देवायुके आस्रवसरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥ सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुके आस्रव हैं। सरागसंयमका दो प्रकारसे अर्थ हो सकता है-राग सहित व्यक्तिका संयम अथवा रागसहित संयम । संसारके कारणोंका विनाश करनेमें तत्पर लेकिन अभी जिसकी सम्पूर्ण अभिलाषाएँ नष्ट नहीं हुई ऐसे व्यक्ति को सराग कहते हैं और सरागीका जो संयम है वह सरागसंयम है। अथवा जो संयम रागसहित हो वह सरागसंयम है, अर्थात् महाव्रतको सरागसंयम कहते हैं। कुछ संयम और कुछ असंयम अर्थात् श्रावकके व्रतोंको संयमासंयम कहते हैं। बिना संक्लेशके समतापूर्वक कर्मों के फलको सह लेना अकामनिर्जरा है । जैसे बुभुक्षा, तृष्णा, ब्रह्मचर्य, भूशयन, मलधारण, परिताप आदिके कष्टोंको विना संक्लेशके भी सहन करने वाले जेलमें बन्द प्राणीके जो अल्प निर्जरा होती है वह अकामनिर्जरा है। मिथ्यादृष्टि तापस, संन्यासी, पाशुपत, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी, परमहंस आदिका जो कायक्लेश आदि तप है उसको बालतप कहते हैं । सरागसंयम आदि देवायुके आस्रव हैं। सम्यक्त्वञ्च ।। २१॥ सम्यग्दर्शन भी देवायुका आस्रव है । इस सूत्रको पूर्व सूत्रसे पृथक करनेका प्रयोजन यह है कि सम्यग्दर्शन वैमानिक देवोंकी आयुका ही आस्रव है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के पहिले बद्धायुष्क जीवोंको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि जीव भवनवासी आदि तीन प्रकारके देवोंमें उत्पन्न नहीं होते हैं। अशुभनाम कर्मके आस्रवयोगवक्रता विसंवादनञ्चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ मन, वचन और कायकी कुटिलता और विसंवादन ये अशुभ नाम कर्मके आस्रव हैं। मनमें कुछ सोचना, वचनसे कुछ दूसरे प्रकारका कहना और कायसे भिन्न रूपसे ही प्रवृत्ति करना योगवक्रता है। दूसरोंकी अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा श्रेयोमार्गपर चलनेवालोंको उस मार्गकी निन्दा करके बुरे मार्गपर चलनेको कहना विसंवादन है। जैसे सम्यक्चारित्र आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवालेसे कहना कि तुम ऐसा मत करो और ऐसा करो। योगवक्रता आत्मगत होती है और विसंवादन परगत होता है यही योगवक्रता और विसंवादनमें भेद है। 'च' शब्दसे मिथ्यादर्शन, पैशून्य, अस्थिरचित्तता, झूठे बांट तराजू रखना, झूठी साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्यग्रहण, असत्यभाषण, अधिक परिग्रह, सदा उज्ज्वलवेष, रूपमद, परुषभाषण, असदस्यप्रलपन, आक्रोश, उपयोगपूर्वक सौभाग्योत्पादन, For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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