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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [६।९-१० समारंभ और आरम्भके भी छत्तीस छत्तीस भेद होते हैं । अतः सब मिलाकर जीवाधिकरणके एक सौ आठ भेद होते हैं। सुत्रमें 'च' शब्दसे यह सूचित होता है कि कषायोंके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि प्रभेदोंके द्वारा जीवाधिकरणके और भी अन्तर्भेद होते हैं । अजीवाधिकरणके भेदनिर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ ६ ॥ दो निर्वतना, तीन निक्षेप, दो संयोग और तीन निसर्गके भेदसे अजीवाधिकरणके ग्यारह भेद होते हैं। रचना करनेका नाम निर्वतना है। निर्वर्तनाके दो भेद हैं-मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। मूलगुण निर्वर्तनाके पाँच भेद हैं-शरीर, वचन, मन, प्राण और अपान । इनकी रचना करना मूलगुण-निर्वर्तना है। काष्ठ, पाषाण, आदिसे चित्र आदि बनाना, जीवके खिलौने बनाना, लिखना आदि उत्तरगुण निर्वर्तना है। किसी वस्तुके रखनेको निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद हैं-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण । बिना देखे किसी वस्तुको रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण है । ठीक तरहसे न शोधी हुई भूमिमें किसी वस्तुको रखना दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण है। शीघ्रतापूर्वक किसी वस्तुको रखना सहसानिक्षेपाधिकरण है। किसी वस्तुको बिना देखे अयोग्य स्थान में रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है। __ मिलानेका नाम संयोग है । संयोगाधिकरणके दो भेद हैं-अन्नपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण। किसी अन्नपानको दूसरे अन्नपानमें मिलाना अन्नपानसंयोगाधिकरण है। और कमण्डलु आदि उपकरणोंको दूसरे उपकरणों के साथ मिलाना उपकरणसंयोगाधिकरण है। प्रवृत्ति करनेको निसर्ग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं--कायनिसर्गाधिकरण, वाकनिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण । काय, वचन और मनसे प्रवृत्ति करनेको क्रमसे कायादिनिसर्गाधिकरण समझना चाहिये। सूत्र में 'पर' शब्द अजीवाधिकरणका वाचक है । यदि पर शब्द न होता तो ये भेद भी जीवाधिकरणके ही हो जाते। उक्त ग्यारह प्रकारके अजीवाधिकरणके निमित्तसे श्रात्मामें कर्मोंका आस्रव होता है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके आस्रवतत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १० ॥ ज्ञान और दर्शन विषयक प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रव हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन ज्ञानयुक्त पुरुषकी प्रशंसा सुनकर स्वयं प्रशंसा न करना और मनमें दुष्ट भावोंका लाना प्रदोष है। किसी बातको जानने पर भी मैं 'उस बातको नहीं जानता हूँ' पुस्तक आदिके होनेपर भी 'मेरे पास पुस्तक आदि नहीं है' इस प्रकार ज्ञानको छिपाना निह्नव है। योग्य ज्ञान योग्य पात्रको भी नहीं देना मात्सर्य है। किसीके ज्ञानमें विघ्न डालना अन्तराय है। दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानकी काय और वचनसे विनय, गुणकीर्तन आदि नहीं करना आसादन है। सम्यग्ज्ञानको भी मिथ्याज्ञान कहना उपघात है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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