SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [४।१३-१५ दश योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं। सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमाका विमान है। इसके बाद चार योजन ऊपर नक्षत्र हैं। नक्षत्रोंसे चार योजन ऊपर बुध, बुधसे तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्रसे तीन योजन ऊपर बृहस्पति, बृहस्पतिसे तीन योजन ऊपर मङ्गल और मंगलसे तीन योजन ऊपर शनैश्चर देव रहते हैं । इस प्रकार मङ्गलसे एक सौ दश योजन प्रमाण आकाशमें ज्योतिषी देव रहते हैं। सूर्यसे कुछ कम एक योजन नीचे केतु और चन्द्रमासे कुछ कम एक योजन नीचे राहु रहते हैं। सब ज्योतिषी देवोंके विमान ऊपर को स्थित अर्द्धगोलकके आकारके होते हैं। चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहोंको छोड़कर शेष ज्योतिषी देव अपने अपने एक ही मार्गमें गमन करते हैं। ज्योतिषीदेवोंकी गतिमेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ मनुष्यलोकके ज्योतिषी देव मेरुकी प्रदक्षिणा देते हुये सदा गमन करते रहते हैं। मनुष्यलोकसे बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं। प्रश्न-ज्योतिषी देवोंके विमान अचेतन होते हैं। उनमें गमन कैसे सम्भव है ? उत्तर-आभियोग्य जातिके देवों द्वारा ज्योतिषी देवके विमान खींचे जाते हैं। आभियोग्य देवोंका कर्मविपाक अन्य ज्योतिषी देवोंके विमानोंको खींचने पर ही होता है। मेरु से ग्यारहसौ इक्कीस योजन दूर रहकर ज्योतिषी देव भ्रमण करते रहते हैं। जम्बूद्वीपमें दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र और एक सौ छिहत्तर ग्रह हैं । लवणसमुद्र में चार सूर्य, एक सौ बारह नक्षत्र और तीन सौ बावन ग्रह है। धातकीखण्डद्वीपमें बारह सूर्य, तीन सौ छत्तीस नक्षत्र और एक हजार छप्पन ग्रह हैं। कालोद समुद्र में ब्यालीस सूर्य, ग्यारह सौ छिहत्तर नक्षत्र और तीन हजार छह सौ निन्यानबे ग्रह हैं । और पुष्करार्द्ध द्वीपमें बहत्तर सूर्य, दो हजार सोलह नक्षत्र और छह हजार तीन सौ छत्तीस ग्रह हैं । चन्द्रमाओंकी संख्या सूर्य के बराबर है। प्रत्येक चन्द्रमाके ग्रहोंकी संख्या अठासी है। और नक्षत्रोंकी संख्या अट्ठाईस है। मानुषोत्तर पर्वतसे बाहर के सूर्यादिकी संख्या आगमानुसार समझ लेनी चाहिये । व्यवहारकालका हेतु तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ दिन, रात, मास आदि व्यवहारकालका विभाग नित्य गमन करने वाले ज्योतिषी देवोंके द्वारा किया जाता है । कालके दो भेद हैं-मुख्यकाल और व्यवहारकाल । मुख्यकालका वर्णन पाँचवें अध्याय में किया जायगा। समय, आवली, मिनिट, घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहारकाल है। वहिरवस्थिताः ॥१५॥ मनुष्यलोकसे बाहरके सब ज्योतिषी देव स्थिर हैं। __'चन्द्रमाके विमानके उपरितन भागका विस्तार प्रमाणयोजनके इकसठ भागोंमें से छप्पनभाग प्रमाण (१६ योजन) है और सूर्यके विमानके उपरितनभागका विस्तार प्रमाण For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy