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३।३६] तृतीय अध्याय
३५९ किसी मुनिको किसी मन्दिरमें निवास करनेपर उस स्थानमें समस्त देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंको परस्पर बाधा रहित निवास करनेको शक्तिका नाम अक्षीणालय ऋद्धि है।
ऋद्धिरहित आर्यों के पाँच भेद हैं-१ सम्यक्त्वार्य, २ चारित्रार्य, ३ कार्य, ४ जात्यार्य और ५ क्षेत्रार्य।
व्रतरहित सम्यग्दृष्टी सम्यक्त्वार्य हैं। चारित्रको पालने वाले यति चारित्रार्य हैं। कार्यों के तीन भेद हैं--सावध कार्य, अल्पसावध कर्मार्य और असावद्यकार्य । सावध कर्मार्य के छह भेद हैं-असि, मसि,कृषि,विद्या, शिल्प और वाणिज्यकर्मार्य ।
तलवार, धनुष , बाण, छुरी, गदा, आदि नाना प्रकारके आयुधों को चलानेमें चतुर असि कार्य हैं । आयव्यय आदि लिखने वाले अर्थात् मुनीम या क्लर्क मसिकार्य हैं। खेती करने वाले कृषि कार्य हैं । गणित आदि बहत्तर कलाओंमें प्रवीण विद्या कार्य हैं। निर्णेजक नाई आदि शिल्प कार्य हैं । धान्य, कपास,चन्दन, सुवर्ण आदि पदार्थों के व्यापार को करने वाले वाणिज्यकर्माय हैं।
श्रावक अल्प सावध कर्माय होते हैं और मुनि असावद्य कार्य हैं।
इक्ष्वाकु आदि वंशमें उत्पन्न होने वाले जात्यार्य कहलाते हैं । वृषभनाथ भगवान के कुलमें उत्पन्न होनेवाले इक्ष्वाकुवंशी, भरतके पुत्र अर्ककीर्ति के कुलमें उत्पत्र होनेवाले सूर्यवंशी, बाहुबलिके पुत्र सोमयशके • कुलमें उत्पन्न होनेवाले सोमवंशी, सोमप्रभ श्रेयांसके कुलमें उत्पन्न होनेवाले कुरुवंशी, अकम्पन महाराजके कुलमें उत्पन्न होनेवाले नाथवंशी, हरिकान्त राजाके कुल में उत्पन्न होनेवाले हरिवंशी, यदुराजाके कुलमें उत्पन्न होनेवाले यादव, काश्यप राजाके कुलमें उत्पन्न होनेवाले उप्रवंशी कहलाते हैं।
कौशल, गुजरात, सौराष्ट्र, मालव, काश्मीर आदि देशों में उत्पन्न होनेवाले क्षेत्रार्य कहलाते हैं।
म्लेच्छ दो प्रकारके होते हैं-अन्तीपज और कर्मभूमिज ।
लवण समुद्रमें आठों दिशाओं में आठ द्वीप हैं। इन द्वीपोंके अन्तराल में भी पाठ द्वीप हैं। हिमवान् पर्वतके दोनों पावों में दो द्वीप हैं। शिखरी पर्वतके दोनों पार्यों में दो द्वीप हैं। और दोनों विजयाद्ध पर्वतों के दोनों पार्यों में चार द्वीप हैं। इस प्रकार लवण समुद्रमें चौबीस द्वीप हैं, इनको कुभोगभूमि कहते हैं।
चारों दिशाओं में जो चार द्वीप हैं वे समुद्र को वेदीसे पाँच सौ योजनकी दूरी पर हैं। इनका विस्तार सो योजन है। चारों विदिशाओंके चार द्वीप और अन्तरालके आठ द्वीप समुद्रकी वेदीसे साढ़े पाँच सौ योजनकी दूरी पर हैं उनका विस्तार पचास योजन है। पर्वतोंके अन्तमें जो आठ द्वीप हैं वे समुद्रकी वेदीसे छह सौ योजनकी दूरी पर हैं। इनका विस्तार पच्चीस योजन है।
___ पूर्वदिशाके द्वीपमें एक पैर वाले मनुष्य होते हैं । दक्षिण दिशाके द्वीपमें मनुष्य शृङ्ग ( सींग ) सहित होते हैं । पश्चिम दिशाके द्वीपमें पूंछवाले मनुष्य होते हैं। उत्तर दिशाके द्वीपमें गूंगे मनुष्य होते हैं। आग्नेय दिशामें शश ( खरहा ) के समान कान वाले और नैऋत्य दिशामें शड्कुलीके समान कानवाले मनुष्य होते हैं। वायव्य दिशामें मनुष्योंके कान इतने बड़े होते हैं कि वे उनको ओढ़ सकते हैं । ऐशान दिशामें मनुष्यों के लम्बे कान वाले मनुष्य होते हैं।
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