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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३।२६-२७] तृतीय अध्याय ३९१ से हैमवत क्षेत्रका विस्तार दूना है । यही क्रम विदेह क्षेत्र पर्यन्त है । विदेह क्षेत्रके विस्तारसे नील पर्वतका विस्तार आधा है, नील पर्वतके विस्तारसे रम्यक क्षेत्रका विस्तार आधा है। यह क्रम ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त है। उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥ २६ ॥ उत्तरके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार दक्षिण ओरके क्षेत्र और पर्वतोंके विस्तारके समान है । अर्थात् रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रोंका विस्तार क्रमसे हरि, हैमवत और भरतक्षेत्रके विस्तारके समान है । नील, रुक्मि और शिखरो पर्वतोंका विस्तार क्रमसे निषध, महाहिमवान् और हिमवान् पर्वतोंके विस्तारके बराबर है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में कालका परिवर्तनभरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥ २७ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके छह समयों द्वारा जीवोंकी आयु, काय, सुख, आदिकी वृद्धि और हानि होती रहती है । क्षेत्रोंकी हानि वृद्धि नहीं होती। कोई आचार्य 'भरतैरावतयोः पदमें षष्ठी द्विवचन न मान्कर सप्तमोका द्विवचन मानते हैं। उनके मतसे भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्रकी वृद्धि और हानि नहीं होती किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें रहनेवाले मनुष्योंकी आयुउपभोग आदिकी वृद्धि और हानि होती है । उत्सर्पिणी कालमें आयु और उपभोग आदिकी वृद्धि और अवसर्पिणी कालमें हानि होती है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छह छह भेद हैं । अवसर्पिणी कालके छह भेद१ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुषमा, ४ दुःषमसुषमा, ५ दुःषमा, ६ अतिदुःषमा । उत्सर्पिणी कालके छह भेद--१ अतिदुःषमा, २ दुषमा, ३ दुःषमसुषमा, ४ सुषमदुःषमा, ५ सुपमा, ६ सुषमसुषमा। __ यद्यपि वर्तमानमें अवसर्पिणी काल होनेसे सूत्र में अवसर्पिणीका ग्रहण पहिले होना चाहिये लेकिन उत्सर्पिणी शब्दको अल्प स्वरवाला होनेसे पहिले कहा है। सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमदुःपमा दो कोड़ाकोड़ी सागर, दुःषमसुषमा व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, दुःषमा इक्कीस हजार वर्ष और अतिदुःषमा इक्कीस हजार वर्षका है। अवसर्पिणीके प्रथम कालमें उत्तम भोगभूमिकी, द्वितीय कालमें मध्यम भोगभूमिकी और तृतीय काल में जघन्य भागभूमिकी रचना होती है। तृतीय कालमें पल्यके आठवें भाग बाकी रहनेपर सोलह कुलकर उत्पन्न होते हैं। पन्द्रह कुलकरोंकी मृत्यु तृतीय कालमें ही हो जाती है लेकिन सोलहवें कुलकरकी मृत्यु चौथे कालमें होती है। प्रथम कुलकरकी आयु पल्यके दशम भाग प्रमाण है । ज्योतिरङ्ग कल्पवृक्षोंकी ज्योति के मन्द हो जानेके कारण चन्द्र और सूर्यके दर्शनसे मनुष्योंको भयभीत होनेपर प्रथम कुलकर उनके भयका निवारण करता है। द्वितीय कुलकरकी आयु पल्यके सौ भागोंमें से एक भाग प्रमाण है। द्वितीय कुलकरके समयमें ताराओंको देखकर भी लोग डरने लगते हैं अतः वह उनके भयको दूर करता है। तृतीय कुलकरकी आयु पल्यके हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है । यह सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जीवोंसे उत्पन्न भयका परिहार करता है । चतुर्थ कुलकरकी आयु पल्यके दश हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है। वह For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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