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२०४३-४८] द्वितीय अध्याय
३७७ एक जीवके एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं ।
तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याचतुर्यः॥४३॥ एक साथ एक जीवके कमसे कम दो और अधिकसे अधिक चार शरीर हो सकते हैं। दो शरीर तैजस और कार्मण, तीन-तेजस, कार्मण और औदारिक अथवा तेजस,कार्मण और वैक्रियिक, चार-तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक। एक साथ पाँच शरीर नहीं हो सकते, जिस संयतके आहारक शरीर होता है उसके वैक्रियिक नहीं होता, और जिन देव नारकियोंके वक्रियिक शरीर होता है उनके आहारक नहीं होता।
कार्मण शरीरकी विशेषता
निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४४ ॥ अन्तका कार्मण शरीर उपभोग रहित है। इन्द्रियों के द्वारा शद्वादि विषयोंके ग्रहण करनेको उपभोग कहते हैं । विग्रहगतिमें द्रव्येन्द्रियकी रचना न होनेसे कार्मण शरीर उपभोग रहित होता है । यद्यपि तैजस शरीर भी उपभोग रहित है लेकिन उसमें योगनिमित्तकता न होनेसे स्वयं ही निरुपभोगत्व सिद्ध हो जाता है।
औदारिक शरीरका स्वरूप
गर्भसम्मृच्छेनजमाधम् ॥ ४५ ॥ गर्भ और संमूर्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले सभी शरीर औदारिक होते हैं।
वैक्रियिक शरीरका स्वरूप
औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६ ।। उपपाद जन्मसे उत्पन्न होने वाले शरीर वैक्रियिक होते हैं।
लब्धिप्रत्ययश्च ॥४७॥ वैक्रियिक शरीर लब्धिजन्य भी होता है। विशेष तपसे उत्पन्न हुई ऋद्धिका नाम लब्धि है । लब्धिजन्य वैक्रियिक शरीर छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके होता है।
उत्तर वैक्रियिक शरीरका जयन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
तीर्थंकरों के जन्म आदि कल्याणकोंके समय और नन्दीश्वर द्वीप आदिके चैत्यालयोंकी वन्दनाके समय पुनः पुनः अन्त मुहूर्त के बाद नूतन नूतन वैक्रियिक शरीरकी रचना कर लेने के कारण अधिक समय तक भी वैक्रियिकशरीरनिमित्तक कार्य होता रहता है। देवों को वैक्रियिक शरीरके बनानेमें किसी प्रकारके दुःखका अनुभव न होकर सुखका ही अनुभव होता है।
तैजसमपि ॥४८॥ तेजस शरीर भी लब्धिजन्य होता है। तेजस शरीर दो प्रकार है --निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक ।
निःसरणात्मक-किसी उग्रचारित्रवाले यतिको किसी निमित्तसे अति क्रोधित हो जाने पर उनके बायें कन्धेसे बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा जलती हुई अग्नि के समान और काहलके आकार वाला तैजस शरीर बाहर निकलता है । और दाह्य वस्तुके पास जाकर उसको भस्मसात् कर देता है। पुनः यतिके शरीरमें प्रवेश करके यतिको भी भस्म कर देता है । यह निःसरणात्मक तेजस शरीरका लक्षण है।
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