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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२१३७-४२ तेजस नामकर्मके उदयसे होनेवाले तेज युक्त शरीरको तैजस शरीर कहते हैं। कार्मण नामकर्म के उदयसे होनेवाले ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के समूहको कार्मण शरीर कहते हैं । यद्यपि सभी शरीरोंका कारण कर्म होता है फिर भी प्रसिद्धिका कारण कर्म विशेषरूपसे बतलाया है। शरीरों में सूक्ष्मत्व परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३७ ॥ पूर्वकी अपक्षा आगे आगेके शरीर सूक्ष्म हैं । अर्थात् औदारिकसे वैक्रियिक सूक्ष्म है, वैक्रियिकसे आहारक इत्यादि। शरीरों के प्रदेशप्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३८ ॥ तैजस शरीरसे पहिलेके शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं । अर्थात् औदारिकसे वैक्रियिक शरीरके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं और वैक्रियिकसे आहारकके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । औदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेशोंकी अधिकता होनेपर भी उनके संगठनमें लोह पिण्डके समान घनत्व होनेसे सूक्ष्मता है और पूर्व पूर्व के शरीरों में प्रदेशोंकी न्यूनता होनेपर भी तूलपिण्डके समान शिथिलत्व होनेसे स्थूलता है। यहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भाग अथवा श्रेणीका असंख्यातवाँ भाग गुणाकार हैं। ___ अनन्तगुणे परे ॥ ३९ ॥ अन्तके दो शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे हैं। अर्थात् आहारकसे तैजसके प्रदेश अनन्तगुणे हैं और तेजससे कार्मण शरीरके अनन्तगुणे हैं। यहाँ गुणाकार का प्रमाण अभव्यों का अनन्तगुणा और सिद्धोंका अनन्त भाग है। अप्रतिघाते ॥ ४०॥ तैजस और कार्मण शरीर प्रतिघात रहित हैं। अर्थात् ये न तो मूर्तीक पदार्थ से स्वयं सकते हैं और न किसीको रोकते हैं। यद्यपि वैक्रियिक और आहारक शरीर भी प्रतिघात रहित हैं लेकिन तेजस और कार्मण शरीरकी विशेषता यह है कि उनका लोकपर्यन्त कहीं भी प्रतिघात नहीं होता। वैक्रियिक और आहारक शरीर सर्वत्र अप्रतिघाती नहीं है इनका क्षेत्र नियत है। अनादिसम्बन्धे च ॥ ४१ ॥ तेजस और कार्मण शरीर आत्माके साथ अनादिकालसे सम्बन्ध रखने वाले हैं। च शब्दसे इनका सादि सम्बन्ध भी सूचित होता है क्योंकि पूर्व तैजस कार्मण शरीरके नाश होनेपर उत्तर शरीरकी उत्पत्ति होती है । लेकिन इनका आत्माके साथ कभी असम्बन्ध नहीं रहता। अतः सन्ततिकी अपेक्षा अनादिसम्बन्ध है और विशेषकी अपेक्षा सादि सम्बन्ध है। सर्वस्य ॥ ४२ ॥ उक्त दोनों शरीर सब संसारी जीवोंके होते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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