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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २।१४] द्वितीय अध्याय ३६९ मार्गमें पड़ी हुई धूलि आदि पृथिवी है। पृथिवीकायिक जीवके द्वारा परित्यक्त ईंट आदि पृथिवीकाय है। पृथिवी और पृथिवीकायके स्थावर नामकर्मका उदय न होनेसे वह निर्जीव है अतः उसकी विराधना नहीं होती। जिसके पृथिवीकाय विद्यमान हैं वह पृथिवीकायिक है। जिसके पृथिवी नामकर्मका उदय है लेकिन जिसने पृथिवीकायको प्राप्त नहीं किया है ऐसे विग्रह गतिमें रहनेवाले जीवको पृथिवीजीव कहते हैं। पृथिवीके मिट्टी, रेत, कंकड़, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हीरा, हरताल, हिंगुल, मनःशिला, गेरू, तूतिया, अंजन प्रवाल, अभ्रक, गोमेद, राजवर्तमणि, पुलकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, वैडूर्यमणि, चन्द्रकान्त, जलकान्त, सूर्यकान्त, गैरिकमणि, चन्दनमणि, मरकतमणि, पुष्परागमणि, नीलमणि, विद्रुममणि आदि छत्तीस भेद हैं। बिलोडा गया,इधर उधर फैलाया गया और छाना गया पानी जल कहा जाता है। जलकायिक जीवोंसे छोड़ा गया पानी और गरम किया हुआ पानी जलकाय है। जिसमें जलजीव रहता है उसे जलकायिक कहते हैं । विग्रगतिमें रहने वाला वह जीव जलजीव कहलाता है जो आगे जलपर्यायको ग्रहण करेगा। इधर उधर फैली हुई या जिसपर जल सींच दिया गया है या जिसका बहु भाग भस्म बन चुका है ऐसी अग्निको अग्नि कहते हैं। अग्निजीवके द्वारा छोड़ी गई भस्म आदि अग्निकाय कहलाते हैं। इनकी विराधना नहीं होती। जिसमें अग्निजीव विद्यमान है उसे अग्निकायिक कहते हैं। विग्रहगतिमें प्राप्त वह जीव अग्निजीव कहलाता है जिसके अग्निनामकर्मका उदय है और आगे जो अग्नि शरीरको ग्रहण करेगा। जिसमें वायुकायिक जीव आ सकता है ऐसी वायुको अर्थात् केवल वायुको वायु कहते हैं । वायुकायिक जीवके द्वारा छोड़ी गई, वीजना आदिसे चलाई गई हवा वायुकाय कहलाती है। वायुजीव जिसमें मौजूद है ऐसी वायु वायुकायिक कही जाती है। विग्रहगति प्राप्त, वायुको शरीर रूपसे ग्रहण करने वाला जीव वायुजीव है।। __छेदी गई, भेदी गई या मर्दित की गई गीली लता आदि वनस्पति हैं । सूखी वनस्पति जिसमें वनस्पतिजीव नहीं हैं वनस्पतिकाय हैं। सजीव वृक्ष आदि वनस्पतिकायिक हैं । विग्रहगतिवर्ती वह जीव वनस्पतिजीव कहलाता है जिसके वनस्पतिनामकर्मका उदय है तथा जो आगे वनस्पतिको शरीर रूपसे ग्रहण करेगा । प्रत्येक कायके चार भेदोंमें से प्रथम दो भेद स्थावर नहीं कहलाते क्योंकि वे अजीव हैं तथा इनके स्थावर नामकर्मका उदय भी नहीं है। एकेन्द्रियके चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वसोच्छ्वास । बस जीवोंके भेद द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥ १४ ॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस होते हैं। शंख,कोंड़ी, सीप, जोंक, आदि दोइन्द्रिय जीव हैं। चींटी, विच्छू, पटार, ज, खटमल आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। मक्खी, पतंग, भौंरा, मधुमक्खी, मकड़ी आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं। पञ्चेन्द्रिय जीव अण्डायिक पोतायिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारके हैं। यथा-अण्डायिक-अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले सर्प, बमनी, पक्षी आदि । पोतायिक-जो प्राणी गर्भमें जरायु आदि आवरणसे रहित होकर रहते हैं उन्हें पोतायिक कहते हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, सिंह, व्याघ्र, For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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