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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२।११-१३ पुनः वही स्थिति, कषायध्यायवसाय स्थान और अनुभागाध्यवसायस्थानके होने पर असंख्यात भागवृद्धिसहित द्वितीय योगस्थान होता है। इसप्रकार श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। योगस्थानोंमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि रहित केवल चार प्रकारकी ही वृद्धि होती है। पुनः उसी स्थिति और उसी कषायाध्यवसाय स्थानको प्राप्त करने वाले जीवके द्वितीय अनुभागाध्यवसायस्थान होता है । इसके योगस्थान पूर्ववत् ही होते हैं । इसप्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं। पुनः उसी स्थितिका बन्ध करने वाले जीवके द्वितीय कषायाध्यवसाय स्थान होता है । इसके अनुभागाध्यवसायस्थान और योगस्थान पूर्ववत् ही होते हैं। इसप्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान होते है। इस तरह जघन्य आयुमें एक २ समयकी वृद्धिक्रमसे तीस कोटाकोटि सागरकी उत्कृष्टस्थिति को पूर्ण करे। उक्त क्रमसे सर्वकर्मोकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त कषाय, अनुभाग और योगस्थानों को पूर्ण करने पर एक भावपरिवर्तन होता है। संसारो जीवके भेद समनस्काऽमनस्काः ॥ ११ ।। संसारी जीव समनस्क और अमनस्कके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । मनके दो भेद हैं द्रव्यमन और भावमन । द्रव्य मन पुद्रलविपाकी कर्मके उदयसे होता है। वीर्यान्तराय तथा नोइन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे होने वाली आत्माकी विशुद्धि को भावमन कहते हैं। सूत्रमें समनस्क को गुणदोषविचारक होने के कारण अचित होने से पहिले कहा है। संसारिणस्त्रसस्थावराः ।। १२ ।। संसारी जीवोंके त्रस ओर स्थावरके भेदसे भी दो भेद होते हैं। बस नाम कर्मके उदयसे त्रस और स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर होते हैं । त्रस का मतलब यह नहीं है कि जो चले फिरे वे त्रस हैं और जो स्थिर रहें वे स्थावर हैं। क्योंकि इस लक्षण के अनुसार वायु आदि त्रस हो जाँयगे और गर्भस्थ जीव स्थावर हो जॉयगे। प्रश्न-इस सूत्रमें संसारी शब्दका ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस सूत्र में संसारी शब्द आ चुका है। उत्तर-पूर्व सूत्रमें कहे हुये समनस्क और अमनस्क भेद संसारी जीवके ही होते हैं इस बातको बतलानेके लिये इस सूत्रमें संसारी शब्दका ग्रहण किया गया है । इस शब्दका ग्रहण न करनेसे संसारी जीव समनस्क होते हैं और मुक्त जीव अमनस्क होते हैं ऐसा विपरीत अर्थ भी हो सकता था। तथा संसारी जीव त्रस और मुक्त जीव स्थावर होते हैं ऐसा अर्थ भी किया जा सकता था। अतः इस सूत्र में संसारी शब्दका होना अत्यन्त आवश्यक है। स शब्दको अल्प स्वरवाला और ज्ञान और उसमें दर्शन रूप सभी उपयोगोंकी संभावना होने के कारण सूत्र में पहिले कहा है। स्थावर के भेदपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावराः ॥ १३ ॥ पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच प्रकार के स्थावर हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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